रविवार, 10 अक्तूबर 2010

लौ दर्दे दिल की -- देवी नागरानी (ग़ज़ल संग्रह) की समीक्षा

लौ, जो रौशनी बन गयी

ग़ज़ल ने हिंदी साहित्य मे अपना विशिस्ट स्थान बना लिया है यही कर्ण है की हिन्दी काव्य मे हर तीसरा कवि ग़ज़ल विधा मे अपनी अभिव्यक्ति कर रहा है | दुष्यन्त से लेकर आज तक हजारों गज़लकार ने राष्ट्र और समाज के ज्वलंत विषयों पर अपनी अपनी गज़लों मे चर्चा की है | आधुनिक गज़लकारो में देवी नागरानी का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है जिन्होंने राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी गज़लों से विशेष स्थान बनाया है | उनका नवीनतम ग़ज़ल संग्रह लो दर्द-दिल की इस बात का पक्का सबूत है कि ग़ज़ल अपने कथ्य और शिक्षा से पूरे मानक -समाज मे प्रेम और सदभाव का सन्देश दे रही है यथा -

मुहब्बत के बहते हों धारे जहाँ

वतन ऐसा जन्नत -निशाँ चाहिए

ग़ज़ल कि सार्थकता पर उनकी पंक्तियाँ हाटव्य है -

अनबुझी प्यास रूह कि है ग़ज़ल

खुश्क होठों कि तिशनगी है ग़ज़ल

बचपन कि खुशियों को धर्म-जाति और आंतकवाद के नाग ने डस लिया है | देवी नागरानी के शब्दों मे -

अब तो बंदूके खिलौने बन गई

हों गया वीरान बचपन का चमन

कवयित्री ने गज़लों मे हिन्दी -उर्दू के शब्दों का सुंदर व सटीक प्रयोग किया है जो उनके गहन भाषा ज्ञान का प्रतीक है | एक मतला देखे -

कर गई लौ दर्दे-दिल कि इस तरह रौशन जहाँ

कौंधती है बादलों में जिस तरह बर्के-तपाँ

कवयित्री का समर्थन नारी और गरीब आदमी के लिए है -

चूल्हा ठंडा पड़ा है जिस घर का

समझो ग़ुरबत का है वहां पहरा

नारी होती है मान घर-घर का

वो मकाँ को बनाये घर जैसा

ये पंक्तियाँ भी पाठक और श्रोता को गज़ब का हौसला देती है -

किसी को हौसला देना -दिलाना अच्छा लगता है

ज़रुरत मे किसी के काम आना अच्छा लगता है

देश पर अपनी जान लुटाने वालों को याद करते हुए वे कहती है -

मिटटी को इस वतन कि ,देकर लहू कि खुशबू

ममता का, क़र्ज़ सारा, वीरों ने ही उतरा

कुल मिलाकर देवी नागरानी की गज़लों है जीवन के सभी रंगों का सलीको और संजीदगी से सजाया है जो ग़ज़ल के बेहतर भविष्य का पता देती है| आशा है उनकी ये गज़ले देश- विदेश मे लोकप्रिय होंगी और अपना विशिष्ट स्थान बनाएगी| उन्हें बधाई|

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समीक्षक --

डॉ.रामगोपाल भारतीय

६ ए ब्रिज कुंज, रोहटा रोड , मेरठ (उ० प्र०) भारत. मो. (०९३१९६१८१६९)

संग्रहः लौ दर्देदिल की,

ळेखिकाः देवी नागरानी,

पन्नेः १२०, मूल्यः रु.१५०,

प्रकाशकः रचना प्रकाशन, मुंबई ५०