बुधवार, 13 नवंबर 2019

रमकल्लो के जीवन की सरगम है उसके पत्रों में


तकनीक से भरे दौर में चिट्ठी-पत्री की बात करना आश्चर्यजनक लग सकता है. इससे ज्यादा आश्चर्य की बात तो ये है कि कलम के द्वारा ग्रामीण संवेदनाओं को सहजता से उकेरने वाले लखनलाल पाल ने लगभग विलुप्त हो चुकी चिट्ठी-पत्री को उपन्यास का आधार बना दिया है. रमकल्लो की पाती के द्वारा उन्होंने एक अभिनव प्रयोग उपन्यास विधा में किया है. इस तरह का कोई प्रयोग उपन्यास में पहले हुआ हो तो इसकी जानकारी नहीं. 

लेखक द्वारा इससे पहले भी कई कृतियाँ ग्रामीण परिवेश पर आ चुकी हैं. वे स्वयं भी ग्रामीण क्षेत्र से वर्तमान तक गहराई से जुड़े हुए हैं, इसी कारण से उनके द्वारा ग्रामीण जीवन की अभिव्यक्ति अत्यंत सहज रूप से हो जाती है. ऐसा लगता है जैसे ग्रामीण जीवन उनकी कलम से स्वतः ही प्रवाहित होने लगता है, कागज़ पर सजने-संवरने लगता है. समीक्ष्य उपन्यास में लेखक ने एक ग्रामीण महिला के द्वारा लिखे गए पत्रों को आधार बनाते हुए उसकी मनोदशा, उसके संघर्ष, उसकी जिजीविषा, उसके आत्मविश्वास को उकेरा है. यह अपने आपमें अद्भुत कार्य है कि किसी महिला द्वारा अपने पति को लिखे गए पत्रों के आधार पर ग्रामीण जीवन का एक सार्थक चित्र उपन्यास के रूप में पाठकों के सामने रख दिया जाये.

जैसा कि कृति के नाम से ही आभास होता है कि यह एक महिला रमकल्लो के द्वारा लिखे पत्रों की कहानी है. उसका पति गाँव से दूर दिल्ली में मजदूरी करने गया हुआ है. उसकी पत्नी रमकल्लो, जिसने अपनी दृढ इच्छाशक्ति से पढ़ना-लिखना सीखा, अपने पति को नियमित रूप से पत्र लिखती है. उसके पत्रों में उसकी अपनी विवशता, घर, खेतों, जानवरों की देखभाल सम्बन्धी समस्या तो है ही साथ ही गाँव के अन्य समाचारों से भी अपने पति को अवगत कराना है. गाँव में रहकर ही हाईस्कूल की परीक्षा पास कर चुकी रमकल्लो ने अपने पत्रों के द्वारा वर्तमान समाज की, सरकारी मशीनरी की, अव्यवस्था आदि की भी तस्वीर सामने रखी है. नोटबंदी की घटना रही हो या फिर परीक्षाओं में मूल्यांकन के दौरान परीक्षार्थियों की उत्तर पुस्तिका से रुपये निकलने के किस्से, ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालय बनवाए जाने सम्बन्धी कार्य, जॉब कार्ड में की जाने वाली अनियमितताएं आदि के अनुभव से सामने आये हैं.

ऐसा नहीं है कि उसके द्वारा सिर्फ अपनी बात की गई है. वह गाँव में खुद को सक्रिय बनाये हुए है. गाँव के अराजक लोगों के खिलाफ भी वह न केवल खड़ी होती है वरन पुलिस में उनकी शिकायत भी करती है. गाँव की महिलाओं को अत्याचार से बचाने में आगे आती है तो गाँव की बेटी के विवाहोपरांत आये संकट को दूर कर उसे उसके पति से भी मिलाती है. यह चित्रण किसी भी ग्रामीण महिला के सशक्त होने की कहानी कहता है. इसी सशक्तता के चलते रमकल्लो प्रधानी के चुनावों में भी उतरती है. इसके पीछे उसका उद्देश्य ग्रामीण महिलाओं, बालिकाओं के विकास का मार्ग प्रशस्त करना है. रमकल्लो की कहानी का इसे सार भर समझा जाए. असल आनंद तो उसके पत्रों को स्वयं पढ़कर ही उठाना होगा.

बहरहाल, लखनलाल पाल की इस कृति की विशेषता यह रही है कि पत्रों में किसी तरह की बोझिलता नहीं है. एक पत्र के समाप्त होते ही स्वतः दूसरा पत्र पढ़ने की उत्कंठा पैदा होती है. पत्र आपस में जुड़कर एक कथा का, ग्रामीण परिवेश का वातावरण निर्मित करते हैं. पाठक आसानी से इसके साथ अपना तादाम्य स्थापित कर लेता है. अत्यंत सरल, रोचक भाषा में लिखे गए पत्रों में ग्रामीण अंचल (बुन्देली) के शब्द स्वतः ही जन्मते रहते हैं. ऐसा कहीं नहीं लगा है कि उनको जबरन ठूंसने का काम किया गया है. इसके साथ-साथ लेखक ने संवेदना को प्रमुखता देते हुए पत्रों के माध्यम से एक ग्रामीण महिला की, ग्रामीण परिवेश का अंकन दिया है. अनेक स्थल ऐसे बन पड़े हैं जहाँ मार्मिकता स्पष्ट रूप से पाठकों को झकझोर जाती है. रमकल्लो के पत्र पाठकों को हँसाते-हँसाते रुला देने का और आँसू लाने की स्थिति के साथ ही मुस्कराहट भर देने का काम करते हैं.

लखनलाल पाल की यह कृति निश्चित ही पठनीय है. उपन्यास विधा में इस अनुपम प्रयोग के लिए वे साधुवाद के पात्र हैं. इस कृति के द्वारा किसी न किसी रूप में उन्होंने विलुप्त हो जा रही पत्र विधा को भी जीवित करने का कार्य किया है.

समीक्षक : डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
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कृति : रमकल्लो की पाती (उपन्यास)
लेखक : लखनलाल पाल
प्रकाशक : रश्मि प्रकाशन, लखनऊ
संस्करण : प्रथम, 2019
ISBN : 978-93-87773-77-6


सोमवार, 27 मई 2019

असामान्य से असाधारण होने की यात्रा है विटामिन ज़िन्दगी


विटामिन ज़िन्दगी किसी एक व्यक्ति की कहानी मात्र नहीं वरन सन 1976 में जन्मे एक असामान्य बच्चे के असाधारण होकर राष्ट्रीय रोल मॉडल बनने की यात्रा है. इस यात्रा का चयन वह बालक अपने लिए स्वेच्छा से नहीं करता है बल्कि उसकी प्रकृति माँ स्वयं आकर उसका चयन करती है. इस चयन के लिए एक पल को वह पूछना ही चाहता है कि सिर्फ उसका ही चयन क्यों मगर बचपन से आत्मविश्वास के और सकारात्मक सोच के धनी उस बालक ने तत्काल विचार किया कि उसकी प्रकृति माँ द्वारा किसी अन्य को बचाने की दृष्टि से उसका चयन इसके लिए किया है. महज चार वर्ष की अवस्था में दौड़ते, कूदते, फुर्तीले बालक को बुखार के साथ चुपचाप चले आये पोलियो ने खड़ा न होने देने की ठान ली थी तो उस बालक ने भी अपनी उड़ान को निरंतरता देने की ठान रखी थी. वह बालक ललित आत्मविश्वास और सकारात्मक सोच के साथ हर बार, हर ठोकर पर और जीवट बनता रहा, हर दर्द पर और सक्षम होता रहा.  

दिल्ली की गलियों में आते-जाते गिरने वाला बालक, स्कूल की खड़ी सीढ़ियाँ जीवंतता के साथ अपने क़दमों से नापने वाला बालक, देरी से आने पर स्वाभिमान के साथ अपनी शारीरिक स्थिति को दरकिनार रखते हुए शिक्षक को सजा देने के लिए कहने वाला बालक एक दिन रोल मॉडल बनकर सबके सामने आएगा ये किसी ने नहीं सोचा था. उस बालक ने भी नहीं मगर उसके दिल में यह ज़ज्बा अवश्य था कि उसे वह सब करके दिखाना है जो उसके साथ के बच्चे कर रहे हैं या कहें कि उससे अधिक करना है. उनसे बहुत आगे जाना है, बहुत ऊँचाई पर उड़ना है. ऐसे में चीन की दीवार पर जाकर खड़े होना, स्टोन बॉय से मिलकर अपनी भावनात्मक यादों को ताजा करना, संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ मिलकर कार्य करने की वैश्विक क्षमता का विकास करना, विदेश जाकर उच्च शिक्षा प्राप्त करके अपनी शारीरिकता पर बौद्धिकता की विजय को साबित करना आदि उस बालक के असाधारण बनने की राह के विभिन्न पड़ाव बनते चले गए.

इन पड़ावों की सफलतम पहुँच के दौरान वह बालक बचपन से कष्ट का, दर्द का, पीड़ा का प्रकृति माँ द्वारा ओढ़ाया गया आँचल ओढ़े रहा. एक-दो दिनों की नहीं महीनों, सालों की, पल-पल की कष्टकारी प्रक्रिया संभवतः किसी यातना से कम नहीं. बावजूद इसके उस बालक में, बालक से युवा बनते ललित में आगे ही आगे बढ़ते जाने की ललक पल भर को कम नहीं हुई. विटामिन ज़िन्दगी को कथा, उपन्यास आदि के रूप में पढ़ने की मंशा लेकर शायद कुछ हाथ नहीं लगे मगर जब इसके द्वारा ललित से मिलने की कोशिश की जाएगी, खुद को भीड़ से अलग रखकर देखने की चाह पैदा की जाएगी तो एहसास जागेगा कि पृष्ठ दर पृष्ठ जिस पीड़ा का चित्रण एक-एक शब्द करने में लगे हैं, ललित ने उस पल-पल पीड़ा को अपने साथ-साथ चलते देखा है, पलते देखा है, बढ़ते देखा है. शारीरिक कष्ट की इस पीड़ा से ज्यादा कष्टकारी पीड़ा अवश्य ही वह रही होगी जो कि समाज की मनोदशा से, उसकी प्रतिक्रिया से मिलती रही. कदम दर कदम चलती गतिविधि के साथ-साथ शारीरिक रूप से भिन्न क्षमताओं वाले लोगों के प्रति समाज कितना असंवेदनात्मक रवैया, मानसिकता अपनाता है इसे सहज देखा-एहसास किया जा सकता है. सच तो यह है कि विटामिन ज़िन्दगी महज पुस्तक नहीं, एक कृति नहीं, खुद ललित द्वारा लिखे गए संस्मरण मात्र नहीं हैं वरन ललित के रूप में ललित से मिलने का सफ़र है. इस सफ़र का आनंद उसी को आएगा जो ललित से मिलने की चाह रखता है.

समीक्षात्मक रूप से किसी के जीवन को आँकना किसी के लिए भी सहज नहीं होता. खुद हमारे शब्दों में यह न तो उस पुस्तक की समीक्षा है और न ही ललित की जीवन यात्रा का विश्लेषण, न उनके साथ-साथ दोस्ताना निभाते दर्द का चित्रण है. यह ललित के दर्द को समझने का प्रयास मात्र है, समाज की उस मानसिकता के साथ गुजरने का एहसास है, शरीर का अंग न होकर भी शरीर जैसी बनी उन बैसाखियों के साथ उड़ान भरने की प्रक्रिया मात्र है. उनके समर्पण कि यह पुस्तक उन्हें समर्पित है जो अलग हैं या भीड़ से अलग होना चाहते हैं, के साथ हम यह भी जोड़ना चाहते हैं कि यह पुस्तक उन सबके लिए भी एक विटामिन बने जो महज भीड़ का हिस्सा बने हुए हैं. यह पुस्तक उनके लिए भी असाधारण महत्त्व रखे जो समाज की बंधी-बंधाई सोच के साथ चलते रहते हैं. आखिर हम सभी को याद रखना चाहिए कि विटामिन ज़िन्दगी उसी के हिस्से आया है जिसने ज़िन्दगी को जिया है, बिताया नहीं है. विटामिन ज़िन्दगी से ऊर्जा पाते ललित का जीवन सम्पूर्ण समाज को जीवन जीने की कला सिखाये, यही कामना है.

समीक्षक : डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
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कृति : विटामिन ज़िन्दगी (संस्मरण) 
लेखक : ललित कुमार
प्रकाशक : हिन्द युग्म, नई दिल्ली एवं एका, चेन्नई
संस्करण : प्रथम, 2019
ISBN : 9789388689175

शनिवार, 23 मार्च 2019

उनकी आँखों से यात्रा का सुख


जब कोई पुस्तक किसी ऐसे व्यक्ति की हो जो खुद आपमें ही समाहित हो तो उस पुस्तक को पढ़ने का आनंद अलग ही होता है. इस आनंद में और वृद्धि तब हो जाती है जबकि वह उस लेखक की पहली पुस्तक हो. यह बिंदु पढ़ने वाले को आनंदित और गौरवान्वित करता है. आनंद की सीमा यहीं आकर नहीं रुकती वह तब और बढ़ जाती है जबकि पुस्तक का विषय पढ़ने वाले के लिए नया हो. ऐसे ही गौरवान्वित करने वाले आनंद के क्षण हमारे लिए उस समय आये जबकि हमारे अभिन्न अनुराग ढेंगुला ने फोन से अपनी पहली पुस्तक के प्रकाशित होने की और उसे भेजने की जानकारी दी. पुस्तक हाथ में आते ही उसे पढ़ना और इसलिए भी बहुत गंभीरता से पढ़ना था क्योंकि यह अनुराग की पहली पुस्तक होने के साथ-साथ यात्रा वृतांत थी. हजारों पुस्तकों को पढ़ने के बाद भी यात्रा-वृतांत न के बराबर पढ़े हैं. चूँकि घूमने-फिरने की, सैर-सपाटा करने की, यात्रा-संस्मरण लिखने की हमारी खुद का शौक या कहें कि आदत में शामिल है, ऐसे में अनुराग की यात्रा-वृतांत ‘सागर से झील तक’ पढ़ने का, जल्द से जल्द पढ़ने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहे थे. अनुराग के यात्रा संस्मरणों का सुखद आनंद लिया जा रहा था. हर एक यात्रा से खुद को जोड़कर देखते हुए, पुस्तक के एक-एक पृष्ठ को खुद की कलम से उकेरा हुआ सा समझकर गौरव की अनुभूति की जा रही थी. उनकी यात्रा के आनंद में हम भी गोते लगा रहे थे कि हमें इस गौरवपूर्ण, आनंदमयी क्षणों से खुद अनुराग ने बाहर खींच लिया, जबकि उनका स्नेहिल आदेश मिला कि इसकी आलोचनात्मक टिप्पणी जल्द से जल्द चाहिए है. 

किसी भी पुस्तक, कृति की आलोचनात्मक टिप्पणी या समीक्षा करना हमारे लिए बड़ा ही रुचिकर कार्य है किन्तु कई बार बहुत कष्टकारी भी हो जाता है. कष्टकारी इस रूप में जबकि कृति किसी अपने की हो. ऐसा इसलिए क्योंकि हम इसे भूलकर कि पुस्तक किसकी है, कृति किसकी है निष्पक्ष रूप से समीक्षा करने का प्रयास करते हैं. जब निष्पक्ष समीक्षा की आलोचना की बात होती है तो फिर गुण-दोषों का समान रूप से विवेचन आवश्यक होता है. यहाँ दिमाग से, दिल से यह निकालना पड़ता है कि पुस्तक का लेखक कौन है, उस लेखक से क्या सम्बन्ध है. जहाँ तक अनुराग से सम्बन्ध की बात है तो इस पर कभी बाद में, अभी हाल-फ़िलहाल उसकी पुस्तक ‘सागर से झील तक’ के बारे में.

अनुराग की यह पुस्तक उनकी सात यात्राओं कन्याकुमारी, बद्रीनाथ धाम, गुरुवायुर, पचमढ़ी, राष्ट्रीय राजमार्ग 43, शिमला, लेह आदि का वृतांत है. रस्किन बांड के एक वाक्य ‘सभी मनुष्य मेरे दोस्त हैं, मुझे सिर्फ उनसे मिलना है’ से प्रेरित अनुराग विश्व बंधुत्व की भावना कि ‘सभी स्थान मेरे जाने-पहचाने हैं, मुझे बस वहां जाना है’ के साथ यात्राओं पर निकल कर उनका अनुभव ही नहीं देते हैं वरन उनके साथ जानकारियों का अनुपम भंडार भी खोल देते हैं. पुस्तक में संकलित यात्राओं में उनकी पहली यात्रा जो गोवा होते हुए कन्याकुमारी तक पहुँचती है, ट्रेन के अनुभवों, दक्षिण भारत के रोमांच का अनुभव तो कराती ही है साथ में जानकारियों से भी भर देती है. कोंकण रेलवे अपने निर्माण से लेकर अद्यतन लगातार रोमांच का विषय बना रहा है. इस सफ़र ने न केवल देशवासियों को वरन विदेशियों को भी अपनी तरफ आकर्षित किया है. इस यात्रा विवरण की विशेषता यही है कि जितनी जानकारी अनुराग गोवा के खुलेपन की देते हैं, कन्याकुमारी के बारे में देते हैं उससे कहीं अधिक जानकारी वे कोंकण रेलवे के बारे में देते हैं. निश्चित ही ऐसी जानकारी यात्रा के रोमांच को बढ़ाती है और ज्ञान में भी वृद्धि करती है. उनका रेल वृतांत जहाँ आगे की यात्रा के बारे में कौतूहल जगाता है वहीं क्रूज की सैर सागर से परिचय करवाता है.

ऐसा वे मात्र इसी यात्रा संस्मरण में नहीं करते हैं वरन लगभग सभी यात्रा-विवरणों में उनके द्वारा सम्बंधित क्षेत्र की, वहां की जीवन-शैली से सम्बंधित जानकारी प्रदान करने का प्रयास किया गया है. इसे लेह-यात्रा के संस्मरण में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है जबकि समुद्र तल से अधिक ऊँचाई पर होने के कारण होने वाली समस्या और उससे निपटने के लिए उपयोग की जाने वाली दवाई तक का जिक्र वे करते हैं. राष्ट्रीय राजमार्ग 43 की यात्रा के दौरान गुफाओं की खोज, उससे सम्बंधित पौराणिक कथाओं आदि का चित्रण लेखक के सजग मष्तिष्क की पहचान कराता है.

अनुराग के इस यात्रा-वृतांत की एक विशेष बात उन सभी को अवश्य ही आकर्षित करेगी जो उनसे परिचित हैं. उनके साथ बातचीत में शामिल होते हैं. उनके बात करने का अंदाज, उनकी शैली, शब्दों और वाक्यों का संयोजन जिस तरह से वे अपने रोजमर्रा के जीवन में करते हैं, उसी अंदाज में वे अपनी यात्रा के अनुभव पाठकों से साझा करते हैं. पूरी पुस्तक के पढ़ने के दौरान कहीं भी यात्रा विवरण पढ़ने जैसा एहसास नहीं होता है. ऐसा लगता रहता है जैसे अनुराग स्वयं सामने बैठकर अपनी यात्रा के बारे में बता रहे हैं. किसी भी स्थान पर कैसे पहुँचना हुआ, कैसे वहाँ के होटल में रुकना हुआ, कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे टहलना-घूमना हुआ इसका विवरण किसी भी तरह की साहित्यिकता के बोझ से लदा हुआ नहीं दिखाई देता है. शब्दों का सामान्य सा, दैनिक बोलचाल जैसा संयोजन उनकी यात्रा से पाठकों को जोड़ता है. ट्रेन में सामान रखने की स्थिति हो, भोजन करने की बात हो, प्लेटफ़ॉर्म पर ट्रेन का इंतजार करना रहा हो, सफ़र में अनजान यात्रियों के साथ अपनत्व का भाव बनाना रहा हो, भ्रमण-स्थलों के बाजारों अथवा दर्शनीय स्थलों को देखना-घूमना रहा हो, स्थानीय शब्दावली का प्रयोग और उसका अर्थ आदि को अनुराग बड़े ही सहज भाव से बताते से चलते हैं. एक बात निसंकोच इन यात्राओं के सन्दर्भ में कही जा सकती है कि इस वृतांत को पढ़ने के बाद यदि इन जगहों की सैर करने कोई पाठक जाये तो उसे कठिनाई का अनुभव नहीं होगा. उसे सम्बंधित दर्शनीय स्थल पहले से देखे हुए प्रतीत होंगे.

आलोचनात्मक दृष्टि से हमें आकर्षित करने वाली एक बात और दिखाई दी वह ये कि अनुराग के द्वारा अपने यात्रा अनुभवों में कहीं-कहीं हिन्दी फीचर फिल्मों के दृश्यों के द्वारा पाठकों को वहां की स्थिति समझाने का प्रयास किया गया है. यह प्रयोग संभवतः अपने आपमें अनूठा, अद्भुत कहा जायेगा. ऐसा इसलिए भी क्योंकि युवा पीढ़ी जिस तरह से फिल्मों को आत्मसात करती हुई उनके दृश्यों का आनंद लेती है, उसके लिए इन उदाहरणों से यात्रा को समझना सहज हो सकता है. अनुराग ऐसा प्रयोग करने में इसलिए सफल दिखते हैं क्योंकि वे पत्रकारिता के क्षेत्र से भी जुड़े रहे हैं. वर्तमान की मानसिकता को परखते हुए उसकी नब्ज पर हाथ रखने की कला इसी का सुखद परिणाम है. यात्रा के दौरान वे इसी पत्रकारिता अनुभव के कारण बारीक और गहराई भरी नजर रखने में भी सफल रहे हैं. इससे भी पुस्तक को रोचकता के साथ जानकारीपरक बनाने में सहायता मिली है.

‘सागर से झील तक’ पुस्तक पढ़ने के हमारे अनुभव को भले ही आलोचनात्मक या समीक्षात्मक टिप्पणी कह दिया जाये मगर ऐसा है नहीं. यह पुस्तक पढ़ने का अनुभव ही है जो अनुराग के साथ यात्राओं में लिया जा रहा है. पुस्तक के पढ़ने के दौरान लगा कि यदि अनुराग ने इसे डायरी शैली में लिखा होता तो शायद और अधिक आकर्षक विवरण सामने आये होते. ऐसा महसूस हुआ कि यदि उनकी यात्रा का अनुभव तिथिवार होता तो और अधिक रुचिकर बन सकता था. ऐसा इसलिए क्योंकि अनुराग तो अपनी यात्रा के विश्राम-काल में रात्रि को नींद के आगोश में चले जाते रहे मगर एक पाठक उनकी यात्रा में तारतम्यता के साथ विश्राम भी न कर सका. निश्चित रूप से आज के तकनीकी युग में जहाँ लोगों के पढ़ने के शौक कंप्यूटर, मोबाइल, किंडल पर विकसित हो गए हैं, बड़े-बड़े लेखों के स्थान पर छोटे-छोटे लेखों को वरीयता दी जाने लगी हो तब एक यात्रा का विस्तारपरक विवरण बहुत गंभीरता से शायद सभी लोग न पढ़ सकें. यदि ऐसी स्थिति किसी भी पाठक के साथ बनती है तो वह यात्रा संस्मरण के बीच संजोई गई गंभीर और ज्ञानवर्धक जानकारी से वंचित रह जायेगा. अनुराग को अपने यात्रा अनुभवों के साथ दी गई जानकारी के विस्तार के लिए उसे छोटे-छोटे हिस्सों में बाँटना ज्यादा समीचीन समझ आया.

इसके साथ-साथ सभी यात्राओं में विवरण की सार्थक और सकारात्मक जानकारी मिली मगर वे कन्याकुमारी में ऐसा करने से बचते से नजर आये. इसके पीछे एक कारण संभवतः यह जान पड़ा जो उनकी इस यात्रा के शीर्षक में स्पष्ट किया गया था. ‘दतिया से कन्याकुमारी वाया गोवा’ (रेलयात्रा वृतांत) शीर्षक से अपनी इस यात्रा को संजोने में अनुराग ने कई जगह विस्तार लिया मगर कन्याकुमारी में ऐसा नहीं किया. विवेकानन्द मेमोरियल, विवेकानन्द रॉक, तीन सागरों का मिलन-केंद्र, भारत के दक्षिणी सिरे का अंतिम बिंदु उनकी नज़रों से अचानक ही नहीं अछूता नहीं रह गया होगा. निश्चित ही इसके पीछे अनुराग की कोई न कोई कार्ययोजना रही होगी.

अनुराग की सागर से झील तक’ की यात्रा को महज यात्रा-वृतांत समझकर पढ़ने वालों को आरम्भ से ही पढ़ने के बजाय अनुराग के साथ भ्रमण करने जैसा आनंद मिलने लगेगा. यात्रा के दौरान की छोटी से छोटी घटनाओं को संकलित करते हुए वे अपनी यात्रा का अनुभव साझा नहीं कर रहे होते हैं बल्कि लगता है जैसे पाठकों के लिए भ्रमण का रूट-मैप निर्मित करते जा रहे हैं. ट्रेन संख्या, फ्लाइट संख्या, रेलवे स्टेशन, एअरपोर्ट, टैक्सी, होटल, छोटी-छोटी जगहों, चौराहों, बाजारों, कस्बों, खाद्य-सामग्रियों आदि के नाम सहित वर्णन नितांत उनके अनुभव बनकर ही नहीं रह जाते. उनकी परिजनों सहित यात्रा का आँखों देखा हाल भले ही उनकी थाती हो मगर निसंकोच कहा जा सकता है कि ‘सागर से झील तक’ पाठकों के लिए संग्रहणीय है, बिना यात्रा पर गए यात्रा का आनंद लेने का सुख है.


समीक्षक : डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
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कृति : सागर से झील तक (यात्रा-वृतांत)
लेखक : अनुराग ढेंगुला
प्रकाशक : नमन प्रकाशन, नई दिल्ली
संस्करण : प्रथम, 2019
ISBN : 978-81-8129-866-9

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2019

शब्दों के साथ लन्दन यात्रा


अमूमन लेखों में कहानियों से रोचकता और प्रवाह देखने को नहीं मिलता है किन्तु शिखा वार्ष्णेय के लेखों में ये दोनों तत्त्व सहजता से दिखाई देते हैं. उनके देशी चश्मे से लन्दन को देखने का जो आनंद है वह अपने आपमें किसी मेले में घूमने जैसा है. उनके इन लेखों के द्वारा लन्दन को लन्दन से बाहर रह कर देखा और समझा जा सकता है. इधर हाल के वर्षों में सोशल मीडिया की सहज उपलब्धता के चलते जिस तरह से लोगों पाठकीय धैर्य दिखाई देना कम हुआ है, उसे देखते हुए ये लेख मानक कहे जा सकते हैं. किसी लघुकथा की तरह आरम्भ होकर एक सुख, एक जिज्ञासा, एक जानकारी, एक लयबद्धता के साथ कब अंतिम बिंदु पर आकर ठहर जाता है इसका एहसास एक पाठक को उसी समय होता है जबकि उसे अगले लेख का शीर्षक दिखाई देता है. लन्दन और यहाँ के जीवन को इतना करीब से देखने के साथ-साथ बहुसंख्यक लेखों में वहाँ के और भारतीय जीवन के तुलनात्मक पल भी सामने आकर गुदगुदाते हैं.

अत्यंत सहज, सरल, बोधगम्य भाषा-शैली में लिखे लेखों में कुछ लेख दिल की गहराइयों तक उतर जाते हैं. आज भी अनेक बिंदु और विषय ऐसे हैं जिनको और पाश्चात्य जगत को लेकर भारतीय समाज में अजब तरह वातावरण बना रहता है. पाश्चात्य जगत में भी यदि बात इंग्लैण्ड, लन्दन की हो तो अजब वातावरण कौतूहल में, आश्चर्य में बदल जाता है. इस कौतूहल, आश्चर्य, सोच, मानसिकता को ऐसे लेखों के द्वारा सार्थक, सकारात्मक रूप से समझा-सुलझाया जा सकता है. कहाँ बुढ़ापा ज्यादा स्पष्ट रूप से पाश्चात्य देशों के बुजुर्गों के जीवन और भारतीय बुजुर्गों के जीवन के बारे में बने एकतरफा दृष्टिकोण की तरफ इशारा करता है. संयुक्त परिवार में हँसते-मुस्कुराते जीवन का व्यतीत होना, जो कभी बुड्ढा होने ही नहीं देती और आज़ादी में खलल न पड़े की मानसिकता से पश्चिमी व्यवस्था को अपनाना साबित करने लगा है कि बुड्ढों के जीने के लिए तो सिर्फ व्यवस्था ही जरूरी है. अन्धविश्वास की व्यापकता, यहाँ भी बाबा द्वारा समाज की लगभग एकसमान चेतना को चित्रित करने की कोशिश की गई है.

पुत्र छदम्मीलाल से बोले केसरी नंदन/हिन्दी पढ़नी होए तो जाओ बेटा लन्दन, ये दो पंक्तियाँ उनकी आँखें खोलने को काफी हैं जो अनावश्यक रूप से अंग्रेजी के पीछे भागते हुए अपने ही देश में हिन्दी की उपेक्षा करने में लगे रहते हैं. लन्दन में हिन्दी के प्रति असीम गर्व का भाव, भाषण प्रतियोगिताएं में धाराप्रवाह हिन्दी में बोलना दर्शाता है कि हिन्दी को पढ़ने, बोलने, समझने में उसे शर्मिंदगी का नहीं बल्कि अपनी संस्कृति, देश को जानने का माध्यम बन रहा है. हिन्दी गीतों का दौर, भारतीय टीवी सीरियल लन्दन में भारतीय पहुँच का परिचय देते हैं. इसके साथ-साथ अनेक लेखों में लन्दन की सामाजिकता का, वहाँ की मानसिकता का, राजनीति का, सोच का बोध होता है. पुस्तकालयों के प्रति प्रेम, अनावश्यक रूप से राजनीति में भीड़ का इस्तेमाल न होना, सडकों पर बिना कारण हॉर्न का प्रयोग न करना, शिक्षा की महत्ता, आम के आम और गुठलियों के दाम के रूप में विकसित शुक्राणु दान की अवधारणा आदि के माध्यम से लन्दन के बारे में जाना-समझा जा सकता है.

शिखा वार्ष्णेय के लेखों द्वारा राजसी वैभव से सम्बंधित पुरानी साख और गौरवपूर इतिहास को समझा जा सकता है तो यह भी समझा जा सकता है कि वहाँ की नई पीढ़ी तेज-तर्रार, इंसाफ पसंद तो है परन्तु असंवेदनशील और रिश्तों के प्रति उपेक्षित बिलकुल नहीं है. उनके द्वारा चित्रित लन्दन का वीआईपी कल्चर हमें उसी तरह अपनाने की बात सिखाता है जैसे कि हम पाश्चात्य संस्कृति अपनाते जा रहे हैं. गलियों के गैंग, महिलाओं के साथ अत्याचार जारी है, आपकी सुरक्षा आपके हाथ, बेरोजगारी की समस्या, बढ़ती स्वास्थ्य समस्या, सुरक्षित समाज का असुरक्षित युवा, जाँच की लाइन ऐसे लेख हैं जो भारतीय समाज में लन्दन अथवा पश्चिमी समाज को लेकर बनी कल्पनाओं से निकालकर उनको वास्तविकता से परिचय करवाते हैं.

निश्चय ही अपनी कलम से बाँधने की क्षमता के कारण शिखा वार्ष्णेय की देशी चश्मे से लन्दन डायरी लोगों को सिर्फ पढ़ने का अवसर ही नहीं देती है बल्कि इस देश के साथ-साथ लन्दन की गलियों की भी सैर कराती है. उनके शब्दों के सहारे पाठक खेल का मैदान, स्कूल का प्रांगण, थेम्स नदी का तट, त्यौहार-पर्व का आयोजन, मेले-बाजार की सैर करते हुए लन्दन से वापस अपने देश लौट आता है.


समीक्षक : डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
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कृति : देशी चश्मे से लन्दन डायरी
लेखक : शिखा वार्ष्णेय
प्रकाशक : समय साक्ष्य, देहरादून
संस्करण : प्रथम, 2019
ISBN : 978-93-88165-18-1