मंगलवार, 19 फ़रवरी 2019

शब्दों के साथ लन्दन यात्रा


अमूमन लेखों में कहानियों से रोचकता और प्रवाह देखने को नहीं मिलता है किन्तु शिखा वार्ष्णेय के लेखों में ये दोनों तत्त्व सहजता से दिखाई देते हैं. उनके देशी चश्मे से लन्दन को देखने का जो आनंद है वह अपने आपमें किसी मेले में घूमने जैसा है. उनके इन लेखों के द्वारा लन्दन को लन्दन से बाहर रह कर देखा और समझा जा सकता है. इधर हाल के वर्षों में सोशल मीडिया की सहज उपलब्धता के चलते जिस तरह से लोगों पाठकीय धैर्य दिखाई देना कम हुआ है, उसे देखते हुए ये लेख मानक कहे जा सकते हैं. किसी लघुकथा की तरह आरम्भ होकर एक सुख, एक जिज्ञासा, एक जानकारी, एक लयबद्धता के साथ कब अंतिम बिंदु पर आकर ठहर जाता है इसका एहसास एक पाठक को उसी समय होता है जबकि उसे अगले लेख का शीर्षक दिखाई देता है. लन्दन और यहाँ के जीवन को इतना करीब से देखने के साथ-साथ बहुसंख्यक लेखों में वहाँ के और भारतीय जीवन के तुलनात्मक पल भी सामने आकर गुदगुदाते हैं.

अत्यंत सहज, सरल, बोधगम्य भाषा-शैली में लिखे लेखों में कुछ लेख दिल की गहराइयों तक उतर जाते हैं. आज भी अनेक बिंदु और विषय ऐसे हैं जिनको और पाश्चात्य जगत को लेकर भारतीय समाज में अजब तरह वातावरण बना रहता है. पाश्चात्य जगत में भी यदि बात इंग्लैण्ड, लन्दन की हो तो अजब वातावरण कौतूहल में, आश्चर्य में बदल जाता है. इस कौतूहल, आश्चर्य, सोच, मानसिकता को ऐसे लेखों के द्वारा सार्थक, सकारात्मक रूप से समझा-सुलझाया जा सकता है. कहाँ बुढ़ापा ज्यादा स्पष्ट रूप से पाश्चात्य देशों के बुजुर्गों के जीवन और भारतीय बुजुर्गों के जीवन के बारे में बने एकतरफा दृष्टिकोण की तरफ इशारा करता है. संयुक्त परिवार में हँसते-मुस्कुराते जीवन का व्यतीत होना, जो कभी बुड्ढा होने ही नहीं देती और आज़ादी में खलल न पड़े की मानसिकता से पश्चिमी व्यवस्था को अपनाना साबित करने लगा है कि बुड्ढों के जीने के लिए तो सिर्फ व्यवस्था ही जरूरी है. अन्धविश्वास की व्यापकता, यहाँ भी बाबा द्वारा समाज की लगभग एकसमान चेतना को चित्रित करने की कोशिश की गई है.

पुत्र छदम्मीलाल से बोले केसरी नंदन/हिन्दी पढ़नी होए तो जाओ बेटा लन्दन, ये दो पंक्तियाँ उनकी आँखें खोलने को काफी हैं जो अनावश्यक रूप से अंग्रेजी के पीछे भागते हुए अपने ही देश में हिन्दी की उपेक्षा करने में लगे रहते हैं. लन्दन में हिन्दी के प्रति असीम गर्व का भाव, भाषण प्रतियोगिताएं में धाराप्रवाह हिन्दी में बोलना दर्शाता है कि हिन्दी को पढ़ने, बोलने, समझने में उसे शर्मिंदगी का नहीं बल्कि अपनी संस्कृति, देश को जानने का माध्यम बन रहा है. हिन्दी गीतों का दौर, भारतीय टीवी सीरियल लन्दन में भारतीय पहुँच का परिचय देते हैं. इसके साथ-साथ अनेक लेखों में लन्दन की सामाजिकता का, वहाँ की मानसिकता का, राजनीति का, सोच का बोध होता है. पुस्तकालयों के प्रति प्रेम, अनावश्यक रूप से राजनीति में भीड़ का इस्तेमाल न होना, सडकों पर बिना कारण हॉर्न का प्रयोग न करना, शिक्षा की महत्ता, आम के आम और गुठलियों के दाम के रूप में विकसित शुक्राणु दान की अवधारणा आदि के माध्यम से लन्दन के बारे में जाना-समझा जा सकता है.

शिखा वार्ष्णेय के लेखों द्वारा राजसी वैभव से सम्बंधित पुरानी साख और गौरवपूर इतिहास को समझा जा सकता है तो यह भी समझा जा सकता है कि वहाँ की नई पीढ़ी तेज-तर्रार, इंसाफ पसंद तो है परन्तु असंवेदनशील और रिश्तों के प्रति उपेक्षित बिलकुल नहीं है. उनके द्वारा चित्रित लन्दन का वीआईपी कल्चर हमें उसी तरह अपनाने की बात सिखाता है जैसे कि हम पाश्चात्य संस्कृति अपनाते जा रहे हैं. गलियों के गैंग, महिलाओं के साथ अत्याचार जारी है, आपकी सुरक्षा आपके हाथ, बेरोजगारी की समस्या, बढ़ती स्वास्थ्य समस्या, सुरक्षित समाज का असुरक्षित युवा, जाँच की लाइन ऐसे लेख हैं जो भारतीय समाज में लन्दन अथवा पश्चिमी समाज को लेकर बनी कल्पनाओं से निकालकर उनको वास्तविकता से परिचय करवाते हैं.

निश्चय ही अपनी कलम से बाँधने की क्षमता के कारण शिखा वार्ष्णेय की देशी चश्मे से लन्दन डायरी लोगों को सिर्फ पढ़ने का अवसर ही नहीं देती है बल्कि इस देश के साथ-साथ लन्दन की गलियों की भी सैर कराती है. उनके शब्दों के सहारे पाठक खेल का मैदान, स्कूल का प्रांगण, थेम्स नदी का तट, त्यौहार-पर्व का आयोजन, मेले-बाजार की सैर करते हुए लन्दन से वापस अपने देश लौट आता है.


समीक्षक : डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
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कृति : देशी चश्मे से लन्दन डायरी
लेखक : शिखा वार्ष्णेय
प्रकाशक : समय साक्ष्य, देहरादून
संस्करण : प्रथम, 2019
ISBN : 978-93-88165-18-1


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