शनिवार, 23 मार्च 2019

उनकी आँखों से यात्रा का सुख


जब कोई पुस्तक किसी ऐसे व्यक्ति की हो जो खुद आपमें ही समाहित हो तो उस पुस्तक को पढ़ने का आनंद अलग ही होता है. इस आनंद में और वृद्धि तब हो जाती है जबकि वह उस लेखक की पहली पुस्तक हो. यह बिंदु पढ़ने वाले को आनंदित और गौरवान्वित करता है. आनंद की सीमा यहीं आकर नहीं रुकती वह तब और बढ़ जाती है जबकि पुस्तक का विषय पढ़ने वाले के लिए नया हो. ऐसे ही गौरवान्वित करने वाले आनंद के क्षण हमारे लिए उस समय आये जबकि हमारे अभिन्न अनुराग ढेंगुला ने फोन से अपनी पहली पुस्तक के प्रकाशित होने की और उसे भेजने की जानकारी दी. पुस्तक हाथ में आते ही उसे पढ़ना और इसलिए भी बहुत गंभीरता से पढ़ना था क्योंकि यह अनुराग की पहली पुस्तक होने के साथ-साथ यात्रा वृतांत थी. हजारों पुस्तकों को पढ़ने के बाद भी यात्रा-वृतांत न के बराबर पढ़े हैं. चूँकि घूमने-फिरने की, सैर-सपाटा करने की, यात्रा-संस्मरण लिखने की हमारी खुद का शौक या कहें कि आदत में शामिल है, ऐसे में अनुराग की यात्रा-वृतांत ‘सागर से झील तक’ पढ़ने का, जल्द से जल्द पढ़ने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहे थे. अनुराग के यात्रा संस्मरणों का सुखद आनंद लिया जा रहा था. हर एक यात्रा से खुद को जोड़कर देखते हुए, पुस्तक के एक-एक पृष्ठ को खुद की कलम से उकेरा हुआ सा समझकर गौरव की अनुभूति की जा रही थी. उनकी यात्रा के आनंद में हम भी गोते लगा रहे थे कि हमें इस गौरवपूर्ण, आनंदमयी क्षणों से खुद अनुराग ने बाहर खींच लिया, जबकि उनका स्नेहिल आदेश मिला कि इसकी आलोचनात्मक टिप्पणी जल्द से जल्द चाहिए है. 

किसी भी पुस्तक, कृति की आलोचनात्मक टिप्पणी या समीक्षा करना हमारे लिए बड़ा ही रुचिकर कार्य है किन्तु कई बार बहुत कष्टकारी भी हो जाता है. कष्टकारी इस रूप में जबकि कृति किसी अपने की हो. ऐसा इसलिए क्योंकि हम इसे भूलकर कि पुस्तक किसकी है, कृति किसकी है निष्पक्ष रूप से समीक्षा करने का प्रयास करते हैं. जब निष्पक्ष समीक्षा की आलोचना की बात होती है तो फिर गुण-दोषों का समान रूप से विवेचन आवश्यक होता है. यहाँ दिमाग से, दिल से यह निकालना पड़ता है कि पुस्तक का लेखक कौन है, उस लेखक से क्या सम्बन्ध है. जहाँ तक अनुराग से सम्बन्ध की बात है तो इस पर कभी बाद में, अभी हाल-फ़िलहाल उसकी पुस्तक ‘सागर से झील तक’ के बारे में.

अनुराग की यह पुस्तक उनकी सात यात्राओं कन्याकुमारी, बद्रीनाथ धाम, गुरुवायुर, पचमढ़ी, राष्ट्रीय राजमार्ग 43, शिमला, लेह आदि का वृतांत है. रस्किन बांड के एक वाक्य ‘सभी मनुष्य मेरे दोस्त हैं, मुझे सिर्फ उनसे मिलना है’ से प्रेरित अनुराग विश्व बंधुत्व की भावना कि ‘सभी स्थान मेरे जाने-पहचाने हैं, मुझे बस वहां जाना है’ के साथ यात्राओं पर निकल कर उनका अनुभव ही नहीं देते हैं वरन उनके साथ जानकारियों का अनुपम भंडार भी खोल देते हैं. पुस्तक में संकलित यात्राओं में उनकी पहली यात्रा जो गोवा होते हुए कन्याकुमारी तक पहुँचती है, ट्रेन के अनुभवों, दक्षिण भारत के रोमांच का अनुभव तो कराती ही है साथ में जानकारियों से भी भर देती है. कोंकण रेलवे अपने निर्माण से लेकर अद्यतन लगातार रोमांच का विषय बना रहा है. इस सफ़र ने न केवल देशवासियों को वरन विदेशियों को भी अपनी तरफ आकर्षित किया है. इस यात्रा विवरण की विशेषता यही है कि जितनी जानकारी अनुराग गोवा के खुलेपन की देते हैं, कन्याकुमारी के बारे में देते हैं उससे कहीं अधिक जानकारी वे कोंकण रेलवे के बारे में देते हैं. निश्चित ही ऐसी जानकारी यात्रा के रोमांच को बढ़ाती है और ज्ञान में भी वृद्धि करती है. उनका रेल वृतांत जहाँ आगे की यात्रा के बारे में कौतूहल जगाता है वहीं क्रूज की सैर सागर से परिचय करवाता है.

ऐसा वे मात्र इसी यात्रा संस्मरण में नहीं करते हैं वरन लगभग सभी यात्रा-विवरणों में उनके द्वारा सम्बंधित क्षेत्र की, वहां की जीवन-शैली से सम्बंधित जानकारी प्रदान करने का प्रयास किया गया है. इसे लेह-यात्रा के संस्मरण में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है जबकि समुद्र तल से अधिक ऊँचाई पर होने के कारण होने वाली समस्या और उससे निपटने के लिए उपयोग की जाने वाली दवाई तक का जिक्र वे करते हैं. राष्ट्रीय राजमार्ग 43 की यात्रा के दौरान गुफाओं की खोज, उससे सम्बंधित पौराणिक कथाओं आदि का चित्रण लेखक के सजग मष्तिष्क की पहचान कराता है.

अनुराग के इस यात्रा-वृतांत की एक विशेष बात उन सभी को अवश्य ही आकर्षित करेगी जो उनसे परिचित हैं. उनके साथ बातचीत में शामिल होते हैं. उनके बात करने का अंदाज, उनकी शैली, शब्दों और वाक्यों का संयोजन जिस तरह से वे अपने रोजमर्रा के जीवन में करते हैं, उसी अंदाज में वे अपनी यात्रा के अनुभव पाठकों से साझा करते हैं. पूरी पुस्तक के पढ़ने के दौरान कहीं भी यात्रा विवरण पढ़ने जैसा एहसास नहीं होता है. ऐसा लगता रहता है जैसे अनुराग स्वयं सामने बैठकर अपनी यात्रा के बारे में बता रहे हैं. किसी भी स्थान पर कैसे पहुँचना हुआ, कैसे वहाँ के होटल में रुकना हुआ, कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे टहलना-घूमना हुआ इसका विवरण किसी भी तरह की साहित्यिकता के बोझ से लदा हुआ नहीं दिखाई देता है. शब्दों का सामान्य सा, दैनिक बोलचाल जैसा संयोजन उनकी यात्रा से पाठकों को जोड़ता है. ट्रेन में सामान रखने की स्थिति हो, भोजन करने की बात हो, प्लेटफ़ॉर्म पर ट्रेन का इंतजार करना रहा हो, सफ़र में अनजान यात्रियों के साथ अपनत्व का भाव बनाना रहा हो, भ्रमण-स्थलों के बाजारों अथवा दर्शनीय स्थलों को देखना-घूमना रहा हो, स्थानीय शब्दावली का प्रयोग और उसका अर्थ आदि को अनुराग बड़े ही सहज भाव से बताते से चलते हैं. एक बात निसंकोच इन यात्राओं के सन्दर्भ में कही जा सकती है कि इस वृतांत को पढ़ने के बाद यदि इन जगहों की सैर करने कोई पाठक जाये तो उसे कठिनाई का अनुभव नहीं होगा. उसे सम्बंधित दर्शनीय स्थल पहले से देखे हुए प्रतीत होंगे.

आलोचनात्मक दृष्टि से हमें आकर्षित करने वाली एक बात और दिखाई दी वह ये कि अनुराग के द्वारा अपने यात्रा अनुभवों में कहीं-कहीं हिन्दी फीचर फिल्मों के दृश्यों के द्वारा पाठकों को वहां की स्थिति समझाने का प्रयास किया गया है. यह प्रयोग संभवतः अपने आपमें अनूठा, अद्भुत कहा जायेगा. ऐसा इसलिए भी क्योंकि युवा पीढ़ी जिस तरह से फिल्मों को आत्मसात करती हुई उनके दृश्यों का आनंद लेती है, उसके लिए इन उदाहरणों से यात्रा को समझना सहज हो सकता है. अनुराग ऐसा प्रयोग करने में इसलिए सफल दिखते हैं क्योंकि वे पत्रकारिता के क्षेत्र से भी जुड़े रहे हैं. वर्तमान की मानसिकता को परखते हुए उसकी नब्ज पर हाथ रखने की कला इसी का सुखद परिणाम है. यात्रा के दौरान वे इसी पत्रकारिता अनुभव के कारण बारीक और गहराई भरी नजर रखने में भी सफल रहे हैं. इससे भी पुस्तक को रोचकता के साथ जानकारीपरक बनाने में सहायता मिली है.

‘सागर से झील तक’ पुस्तक पढ़ने के हमारे अनुभव को भले ही आलोचनात्मक या समीक्षात्मक टिप्पणी कह दिया जाये मगर ऐसा है नहीं. यह पुस्तक पढ़ने का अनुभव ही है जो अनुराग के साथ यात्राओं में लिया जा रहा है. पुस्तक के पढ़ने के दौरान लगा कि यदि अनुराग ने इसे डायरी शैली में लिखा होता तो शायद और अधिक आकर्षक विवरण सामने आये होते. ऐसा महसूस हुआ कि यदि उनकी यात्रा का अनुभव तिथिवार होता तो और अधिक रुचिकर बन सकता था. ऐसा इसलिए क्योंकि अनुराग तो अपनी यात्रा के विश्राम-काल में रात्रि को नींद के आगोश में चले जाते रहे मगर एक पाठक उनकी यात्रा में तारतम्यता के साथ विश्राम भी न कर सका. निश्चित रूप से आज के तकनीकी युग में जहाँ लोगों के पढ़ने के शौक कंप्यूटर, मोबाइल, किंडल पर विकसित हो गए हैं, बड़े-बड़े लेखों के स्थान पर छोटे-छोटे लेखों को वरीयता दी जाने लगी हो तब एक यात्रा का विस्तारपरक विवरण बहुत गंभीरता से शायद सभी लोग न पढ़ सकें. यदि ऐसी स्थिति किसी भी पाठक के साथ बनती है तो वह यात्रा संस्मरण के बीच संजोई गई गंभीर और ज्ञानवर्धक जानकारी से वंचित रह जायेगा. अनुराग को अपने यात्रा अनुभवों के साथ दी गई जानकारी के विस्तार के लिए उसे छोटे-छोटे हिस्सों में बाँटना ज्यादा समीचीन समझ आया.

इसके साथ-साथ सभी यात्राओं में विवरण की सार्थक और सकारात्मक जानकारी मिली मगर वे कन्याकुमारी में ऐसा करने से बचते से नजर आये. इसके पीछे एक कारण संभवतः यह जान पड़ा जो उनकी इस यात्रा के शीर्षक में स्पष्ट किया गया था. ‘दतिया से कन्याकुमारी वाया गोवा’ (रेलयात्रा वृतांत) शीर्षक से अपनी इस यात्रा को संजोने में अनुराग ने कई जगह विस्तार लिया मगर कन्याकुमारी में ऐसा नहीं किया. विवेकानन्द मेमोरियल, विवेकानन्द रॉक, तीन सागरों का मिलन-केंद्र, भारत के दक्षिणी सिरे का अंतिम बिंदु उनकी नज़रों से अचानक ही नहीं अछूता नहीं रह गया होगा. निश्चित ही इसके पीछे अनुराग की कोई न कोई कार्ययोजना रही होगी.

अनुराग की सागर से झील तक’ की यात्रा को महज यात्रा-वृतांत समझकर पढ़ने वालों को आरम्भ से ही पढ़ने के बजाय अनुराग के साथ भ्रमण करने जैसा आनंद मिलने लगेगा. यात्रा के दौरान की छोटी से छोटी घटनाओं को संकलित करते हुए वे अपनी यात्रा का अनुभव साझा नहीं कर रहे होते हैं बल्कि लगता है जैसे पाठकों के लिए भ्रमण का रूट-मैप निर्मित करते जा रहे हैं. ट्रेन संख्या, फ्लाइट संख्या, रेलवे स्टेशन, एअरपोर्ट, टैक्सी, होटल, छोटी-छोटी जगहों, चौराहों, बाजारों, कस्बों, खाद्य-सामग्रियों आदि के नाम सहित वर्णन नितांत उनके अनुभव बनकर ही नहीं रह जाते. उनकी परिजनों सहित यात्रा का आँखों देखा हाल भले ही उनकी थाती हो मगर निसंकोच कहा जा सकता है कि ‘सागर से झील तक’ पाठकों के लिए संग्रहणीय है, बिना यात्रा पर गए यात्रा का आनंद लेने का सुख है.


समीक्षक : डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
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कृति : सागर से झील तक (यात्रा-वृतांत)
लेखक : अनुराग ढेंगुला
प्रकाशक : नमन प्रकाशन, नई दिल्ली
संस्करण : प्रथम, 2019
ISBN : 978-81-8129-866-9