भारतीय साहित्य, इतिहास परम्परा में व्याख्या, पुनर्व्याख्या
की स्थापित मान्यता सदैव से रही है. ऐतिहासिक घटनाओं को काल, परिस्थितियों के
अनुसार व्याख्यायित किया जाता रहा है. इसके पीछे व्यक्तियों की जिज्ञासा, अन्वेषण
करने की प्रवृत्ति रही है. महाभारत का नायक कौन के जवाब अर्जुन
के प्रतिप्रश्न के रूप में जब वाक्य उभरा कि एकलव्य या दुर्योधन क्यों नहीं
हो सकता तो समाजविज्ञानी के रूप में सक्रिय लेखक के दिमाग में तमाम
संकल्पनाओं ने जन्म लिया. आज घर-घर में महाभारत मचा हुआ है जैसे
सार्वभौमिक वाक्य के आलोक में उन तमाम संकल्पनाओं का, जिज्ञासाओं का समाधान करने गंगापुत्र
भीष्म को सामने आना पड़ा. निश्चित रूप से महाभारत महज एक युद्ध नहीं, एक गाथा नहीं,
एक इतिहास नहीं, एक महाकाव्य नहीं वरन प्रत्येक समाज का एक सत्य है, जिसे उस
कालखंड के सामाजिक सन्दर्भों में अपनी-अपनी तरह से परिभाषित किया गया है.
समाजविज्ञानी डॉ० पवन विजय अपने उपन्यास के बहाने वर्तमान
कालखंड की सामाजिकता के तमाम प्रश्नों को उभारते हैं. महाभारत युद्ध में शरशैय्या पर
पड़े भीष्म पितामह की जिज्ञासाओं के रूप में एक इन्सान की अनेकानेक जिज्ञासाओं पर मंथन
करते हैं और उसे तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार सुलझाने का यत्न भी करते हैं. इतिहास
हमेशा विजेताओं द्वारा लिखित होता है, इसलिए उसमें विजेताओं का
यशोगान होना स्वाभाविक है, के द्वारा वे न केवल महाभारतकालीन विजेता पक्ष पर सवाल
खड़ा करते हैं वरन वर्तमान सामाजिक विसंगतियों पर भी कटाक्ष करते हैं. नियति किसी
के कर्म कभी निर्धारित नहीं करती. आप आज क्या करोगे, यह विधाता की लेखनी तय
नहीं करती; बल्कि आप जो करोगे, उसके अनुसार आपको कौन सा कर्म करने को दिया जाये या
आपकी कौन सी भूमिका बनायी जाये, यह नियति तय करती है, के द्वारा लेखक
स्पष्ट रूप से अपने उपन्यास के द्वारा सन्देश देता है. तत्कालीन स्थितियों में
उठाये गए कदमों की आहट वर्तमान में भी साफ़-साफ़ सुनाई देती है. कर्मफल के द्वारा केवल
व्यक्ति की नियति ही निर्धारित नहीं होती वरन जड़-चेतन-प्रकृति-चर-अचर आदि सभी की
नियति का निर्धारण होता है. स्पष्ट है कि जब कर्म के आधार पर नियति का निर्धारण
होता है तो इतिहास का लेखन करने वालों को स्वाभाविक रूप से तटस्थता का भाव अपनाना
चाहिए. उनको विजेताओं के साथ-साथ पराजितों का भी पक्ष सामने रखना चाहिए.
यही कारण है कि लेखक ने गंगापुत्र को अंत-अंत तक तमाम सारी
जिज्ञासाओं, शंकाओं के वशीभूत दिखाया है. वे कृष्ण से लेकर काल और संजय तक से अपनी
शंका के समाधान हेतु लगातार सवाल-जवाब करते रहे हैं. धर्म-अधर्म के नाम पर चले
भीषण युद्ध की विभीषिका में वे खुद को, दुर्योधन को एक अलग खांचे में देखना चाहते
हैं. उनके सवालों और उसकी अनुगूंज में उभरते जवाबों में लेखक ने विजेता और पराजित
दोनों का समान पक्ष लेकर कहीं-कहीं कौरवों के प्रति सहानुभूति दर्शायी है और कई जगहों
पर पांडवों को गलत ठहराया है. ऐसा उन्होंने भले ही गंगापुत्र अथवा अन्य पात्रों के
द्वारा करवाया हो मगर यह उनकी सम्पूर्ण कथानक पर निरपेक्ष दृष्टि का परिचायक है. अश्वत्थामा
हतो, नरो वा कुंजरो नामक जिस वाक्य से युधिष्ठिर
का बचाव किया गया है, उस वाक्य को कहीं भी मैंने नहीं सुना,
और न ही मेरे द्वारा कभी यह वाक्य अंकित किया गया, काल की यह स्वीकारोक्ति तत्कालीन प्रसंग के बीच से सत्य-असत्य के उदघाटन
की राह प्रशस्त करती है.
सत्य-असत्य की इसी राह पर भीष्म व्यग्र हैं. खुद को सदैव
हस्तिनापुर के सिंहासन से बाँधने के बाद भी वे कहीं न कहीं अंतर्मन से उचित-अनुचित
में विभेद करने में संकोच भाव से घिरा पाते हैं. उनकी सदैव यही जानने की जिज्ञासा
रही कि दुर्योधन ने जो किया क्या वो अधर्म था? उन्होंने जो कृत्य किये क्या वे
इतिहास में उन्हें पाप का भागी बताएँगे? तभी वे काल से प्रश्न भी करते हैं कि जो
कौरवों के भाग्य में था, वह उनके साथ हुआ,
जो पांडवों के भाग्य में था उन्हें मिला ... फिर इन सबके बीच में मेरा
सही अथवा गलत होना कैसे आ गया? क्या मैं इतना शक्तिशाली हो गया
कि काल के कपाल पर लिखे अक्षरों को मेट डालता और उन पर नये शब्द रख देता? उनका यह प्रश्न महज प्रश्न नहीं वरन खुद को उस नियति से अलग करने की छटपटाहट
है जो उनके व्यक्तित्व को सम्पूर्ण परिस्थितियों से बड़ा बनाती है. महाभारत युद्ध
के जिस विकराल परिणाम को वे देख-समझ रहे हैं, उसमें वे खुद को केंद्रबिंदु माना
जाना स्वीकार नहीं करना चाहते. यह जानते-समझते हुए भी युद्ध की आधारशिला के रूप
में सत्यवती की महत्त्वाकांक्षा, शांतनु का काम और देवव्रत की प्रतिज्ञा ही प्रमुख
है वे एकमात्र अंतिम कुरुवंशीय के रूप में युद्ध के आक्षेप से बाहर निकलना चाहते
हैं.
उनकी इस व्यग्रता को बहुत हद तक उनकी माँ गंगा शांत करती है. भीष्म
के भीष्म बने होने के कष्टमय समय के बीच उनकी माँ गंगा उनको देवव्रत रूप में
समझाती है कि पुत्र देवव्रत! अपने मूल में जो है, उसके विरुद्ध कर्म करना और उसका परिणाम दोनों ही भयावह होता है, इसलिए अपनी चेतना को प्रकृति से जोड़ो और उसे जगाओ; उसका
जागना ही तुम्हारे व लोक जीवन को मंगलमय मार्ग की ओर प्रशस्त करेगा. देखा जाये तो यह एक माँ गंगा का अपने पुत्र देवव्रत को दिया जाने वाला
उपदेश नहीं वरन ज़िन्दगी का वो सार है जिसे समझने के बाद घर-घर में बने कुरुक्षेत्र
स्वतः ही समाप्त हो जाएँ. यह मानवीय स्वभाव ही है जिसे बदलना सबके वश की बात नहीं
होती है. लेखक ने इसे भीष्म पितामह के रूप में बड़े ही सुन्दर रूप में व्याख्यायित
किया है. जिस व्यक्ति के पास इच्छामृत्यु पाने का आशीर्वाद हो, जो देवव्रत से
भीष्म में परिवर्तित हो गया हो उसके बाद भी वह न केवल अपनी भूमिका के लिए वरन
भविष्य में भी निर्धारित होने वाली अपनी भूमिका के लिए चिंतातुर बना हुआ है. लेखक
कहता भी है कि मनुष्य होता ही ऐसा है; हर
अस्तित्व पर प्रश्न करता है, पर स्वयं पर लगे प्रश्नचिह्नों पर
चुप्पी लगा जाता है क्योंकि स्वयं को अस्वीकार करने का अर्थ है, स्वयं को अप्रमाणित करना, जिसे कोई व्यक्ति जीवित रहते
कभी नहीं कर सकता. खुद भीष्म भी अपने को अप्रमाणित
नहीं करना चाहते हैं. इसी के चलते वे सभी से अपने निर्णय पर सहमति-असहमति की मुहर
लगवाना चाहते हैं. यही कारण है कि हर व्यक्ति अपना मूल्यांकन स्वयं करता है,
और फिर उसकी स्वीकृति बाह्य जगत से चाहता है.
श्रीकृष्ण के रूप में और काल के साथ चलते संवादों से भीष्म को
अपने सवालों के जवाब मिलते हैं और शांतचित्त, स्थिर होकर भीष्म का शरीर अलौकिक आभा
से प्रकाशित होने लगता है. शंकाओं के शमन के साथ समाज को एक सन्देश देते हुए वे
बैकुंठलोक को प्रयाण करने को तत्पर हो जाते हैं. मुक्ति के इस क्षण पर भी वे
भली-भांति समझते हुए भी कि सभी अपने अनुसार इस गाथा को कहने सुनने को
स्वतंत्र हैं, वे निश्चिन्त और आनंदित हैं. अट्ठावन दिनों की अपनी शरशैया
यात्रा में इस युद्ध के पार्श्व में धर्म-अधर्म का स्वरूप जान चुके होते हैं.
हस्तिनापुर के सिंहासन की रक्षा के वचन के पीछे की व्यक्तिनिष्ठता, वस्तुनिष्ठता
को पहचान गए होते हैं. कदाचित उनके द्वारा लेखक का भी यही अभीष्ट रहा होगा कि
वर्तमान समाज अपने धर्म-अधर्म को पहचाने. वर्तमान समय की सामाजिकता के मूल में
छिपी कर्तव्य भावना के बोध को उभारे. मन-वचन-कर्म के साथ-साथ उसकी वस्तुनिष्ठता,
व्यक्तिनिष्ठता को पहचाने.
संवाद-शैली में लिखे गए उपन्यास में युद्ध के बाद की स्थिति,
परिस्थिति, कालखंड को उकेरने में जिस काल्पनिकता का समावेश लेखक ने किया है वह
अद्भुत है. सोचा जा सकता है कि करोड़ों-करोड़ लोगों के हताहत होने पर तत्कालीन
युद्धक्षेत्र की दशा क्या रही होगी. बोलो गंगापुत्र के द्वारा मौन को तोड़ने
की कोशिश, उनकी जिज्ञासाओं के समाधान के बीच कौरवों के धर्म की चर्चा करके लेखक ने
निश्चित ही शोध के नए द्वार खोलने का प्रयास किया है. गवेषणा शक्ति से परिपूर्ण
लोगों के लिए शोध के नए-नए और विरल आयाम इसके माध्यम से मिलते हैं. साहित्यकारों
को भी विचार करना चाहिए कि वे पराजितों के इतिहास को भी पुनर्व्याख्यायित करें मगर
पूर्वाग्रह-रहित होकर.
समीक्षक : डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
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कृति : बोलो गंगापुत्र (उपन्यास)
लेखक : डॉ० पवन विजय
प्रकाशक : रेडग्रैब बुक्स, इलाहाबाद
संस्करण : प्रथम, 2018
ISBN : 978-93-87390-25-6
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