संतोष श्रीवास्तव के उपन्यास --- टेम्स की सरगम की समीक्षा
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प्रेम को चरितार्थ करती, अंधकार में दीप जलाती कथा -
टेम्स की सरगम
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प्रेम को चरितार्थ करती, अंधकार में दीप जलाती कथा -
टेम्स की सरगम
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सुमीता केशवा
2204 क्रिमसन टावर
आकुर्ली रोड, लोखंड्वाला
कांदिवली [ईस्ट] मुंबई
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वरिष्ठ कथा लेखिका संतोष श्रीवास्तव का सद्य प्रकाशित उपन्यास 'टेम्स की सरगम' प्रेम तत्व की स्थापना तक अपनी कृति को पहुंचाने की सार्थक पहल है। इसके पहले उनका उपन्यास 'मालवगढ़ की मालविका' पाठकों के ह्र्दय में अक्स होकर रह गया था। तीन स्तरीय पुरस्कारों से सम्मानित इस उपन्यास के कुछ अंश 'मंगल पांडे' फ़िल्म में भी लिये गये थे। निश्चय ही उनका चौथा उपन्यास 'टेम्स की सरगम' भी पाठकों की अपेक्षाओं में खरा उतरेगा।
कथा आरंभ होती है भारत में अंग्रेजों के शासन के अंतिम चार दशकों के समय से जब ईस्ट इंडिया कंपनी के पदाधिकारी टाम ब्लेयर का जहाज भारतीय तट को छूता है। साथ में उसकी अत्यंत खूबसूरत,कमसिन,विदुषी और भावुक ह्रदय वाली पत्नी डायना भी है। कलकत्ते के अपने शानदार आवास में रहते हुए टाम एय्याशी का जीवन यह मानते हुए जीता है कि कालों पर तो केवल शासन किया जा सकता है जबकि डायना जो लंदन में अपने समृद्व व्यापारी पिता की एकमात्र संतान है भारतीय कला और साहित्य से विशेष लगाव रखती है। वह संगीत औए वाध कला में खुद भी पारंगत होना चाहती है। भारतीय साहित्य को अच्छी तरह समझने के लिए वह संस्कृत, हिन्दी और बांग्ला भाषाएं सीखती है। और साथ ही संगीत भी। टाम से निरंतर अवहेलना, दुर्व्यवहार पा उसका कोमल मन चीत्कार कर उठता है और वह अपने संगीत गुरु चंडीदास से प्यार कर बैठ्ती है। चंडीदास आकर्षक,युवा, बंगाली है जो स्वयं भी डायना की तरफ़ आकर्षित है। परस्पर अनुभूतियों और खिंचाव में बद्व दोनों ही एक दूसरे को ऐसा प्रेम करते हैं जो ईश्वरीय स्वरुप ले लेता है। लेखिका ने इस प्रेम को इतिहास में ऐसा गूंथा है कि उस समय का यथार्थ,रहन सहन,सामाजिक उथल पुथल आजादी के प्रति दीवानगी आदि बातें एक सूत्र की तरह जुड्ती़ जाती हैं। इतिहास को अर्थ तभी मिलेगा जब मनुष्य प्रेम के तत्व को पहचान कर उसे प्राप्त कर लेगा।
पूरे उपन्यास में कलकत्ते का जीवंत वर्णन है। उस जमाने बतौर शान इस्तेमाल की जाने वाली फ़िट्न, अंग्रेज हुक्मरानों की विशाल कोठियां और बगीचे के खूबसूरत पुकुर। ऐसे जीवंत माहौल में संगीत का रियाज होता है और डायना सीखती है भारतीय संगीत ।
टाम के स्त्री विषयक विचार एक पितृसत्तात्मक समाज को रचते हैं। ऐसे में नादिरा जैसे पात्रों के कथन....''ईसा मसीह कहते हैं औरतों और कोढ़ियों पर दया करो...यानी कि औरतों के अधिकारों को स्वेच्छा से या दया दिखाते हुए स्वीकार किया है पश्चिम के देशों में...बड़ा उपेक्षापूर्ण नजरिया है वहां। नारी विमर्श की अछूती पृष्ठभूमि तैयार करते हैं। आज जब विभिन्न नारी संगठनों द्वारा इस विषय पर काफ़ी कुछ चर्चा में है लेखिका ने सहज ही इसे उठाया है।
पूरे उपन्यास में इस तरह के वाकये हैं जो भले ही कथा के मूल विषय से परे हैं पर कथा सूत्र को आगे बढ़ाने में और कथा समय के यथार्थ को चित्रित करने में एक अलग ढंग का ट्रीटमेंट बनकर उभरे हैं। उपन्यास में तीन अलग-अलग ढंग के बिल्कुल अनछुए से प्रेम प्रसंग हैं। एक ओर डायना जो भले ही लंदन में पैदा हुई पर भारत आकर और चंडीदास से प्रेम करके बिल्कुल भारतीय हो गई। उसके भारतीय होने पर किसी का उस पर दबाव न था। यह प्रेम का ऐसा समर्पित स्वरुप था जो केवल राधा कृष्ण के प्रेम में ही दिखलाई देता है। वह राधा बनकर अपने चंडीदास में समा गई जिसके व्यक्तित्व में उसे हमेशा कृष्ण दिखते थे। वह कृष्ण को बंगाल के कण-कण से आत्मसात करने लगी और चंडीदास को ह्रदय में उतारती चली गई, मानो कृष्ण कह रहे हों- ''मैं हूं तुम दोनो में समाया...तमाम अधीर लिप्साओं के वशीभूत तुममें उछाहें भरता....राधा ने बांसुरी में सुर भरे और स्वयं गूंज बनकर सृष्टि के कण-कण में समा गई। चंडीदास और डायना का प्रेम कोई साधारण प्रेम न था,दिव्य प्रेम था जिसमें आसपास की घटनाएं,अंग्रेजों के भारतीयों पर होने वाले अत्याचार,सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिन्द फ़ौज,उनका पलायन,बंगाल का आकाल था और साथ-साथ चल रही थी टाम की एय्याशी की कथा,एक गढ़ा हुआ तिलिस्म जिसमें उसकी तमाम ज्यादतियों, फ़्लर्ट के साथ-साथ डायना के प्रति थोपी हुई जिन्दगी के कुछ हिस्से मन को कुरेद जाते हैं, ऐसे में डायना का चंडीदास के प्रति समर्पण संतुष्टि देता है जैसे कि एक दुराचारी के संग साथ का यही अंत होना चाहिए।
दूसरी ओर गुनगुन और सुकांत हैं जो देश को आजादी दिलाने के लिए आजाद हिन्द फ़ौज के सिपाही हैं। दोनों ने सिर पर कफ़न बांधकर प्रेम की शपथ ली है और जब दोनो एक साथ अंग्रेज सिपाही की गोली का शिकार होते हैं तो सुकांत के शरीर से निकला रक्त बह-बह कर पास ही निर्जीव पड़ी गुनगुन का माथा भिगो देता है....'लो, मेरी प्रिया, आज मैने अपने रक्त से तुम्हारी मांग भर दी । आज मैंने तुम्हें वरण किया। तीसरी ओर मुनमुन और सत्यजीत हैं जो बिना किसी वैवाहिक बंधन के युवावस्था से बुढ़ापे तक साथ-साथ रहे और ऐसा डूब कर प्रेम किया जिसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। मुनमुन की मृत्यु सत्यजीत को तोड़ती नहीं है बल्कि वह अपनी यादों में उसे तब तक जीवित रखने का प्रण करता है जब तक वह अंतिम सांस न ले ले।
इन तीनो प्रेम प्रसंगों में जो विविधता है वह उपन्यास की कथा को गहराई तक पहुंचाती है। लेखिका ने इन प्रेम प्रसंगों की जटिलता में,बुनाव में जो बारीकी रची है अर्थात सम्बन्धों की प्रगाढ़ता ,अपने-अपने उद्देश्य और ल्क्ष्य की प्राप्ति,अप्राप्ति है वह कथा की पठनीयता को बेजोड़ सिद्व करती है। प्रकृति का मानवीकरण कथ्य की विशेषता है जिसके जरिये माहौल, भावनाएं उभर कर आती हैं। जैसे...''शाम ने परछाइयां समेट ली थीं और जादूगरनी सी परछाइयों की पिटारी लिए दबे पांव चली गई थीं।....अभी-अभी सूरज ने डुबकी लगाई है और अभी-अभी उसकी डुबकी से चकित चांद नभ से झांका है।''
डायना एक विदुषी,जागरुक और ईमानदार पात्र के रुप में उभरी है। उसका शान्तिनिकेतन जाना,रवीन्द्र्नाथ ठाकुर के भाषण,व्यक्तित्व से प्रभावित होना,जयदेव के गांव केंदुली जाना और गीत गोविंद की संरचना को कल्पनातीत महसूस करना कुछ ऐसे वाकये हैं जो लेखिका की रचना प्रक्रिया के दौरान उसके गहन अध्ययन को रेखांकित करते हैं। जगह-जगह बांग्ला गीतों का गायन चंडीदास और डायना से कराना कथा की प्रमाणिकता सिद्व करते हैं। ये गीत देश-काल और माहौल को उजागर करने में बड़े सहायक हुए हैं। डायना की मृत्यु के बाद उसके और चंडीदास के प्रेम की निशानी उनकी बेटी रागिनी कथानक को डिस्टर्ब किये बिना ऐसी जुड़ती है कि कब उपन्यास रागिनी पर केन्द्रित हो गया, पता ही नहीं चलता। हालांकि जिस परिवेश में रागिनी पली बढ़ी और जिस अपसंस्कृति का शिकार हुई उसके बाद उसका भारत आगमन, कृष्ण पर शोध और अंत में सारी समृद्वि दान कर वृंदावन में कृष्णमयी हो जाना सम्राट अशोक और राजकुमार सिद्धार्थ के इस देश में कोई अछूती घटना नहीं है। रागिनी मानसिक तनाव से जूझ रही थी। माता पिता के प्रेम को तरसती, प्रेम में मिले धोखे को लेकर उसकी भटकन और कुंठा उसे वृंदावन तक खींच लाई थी। सांस्कृतिक और सामाजिक बल्कि देशीय बदलाव भी रागिनी ने महसूस किया और भोगा भी। अपने जीवन के संक्रमण सहित अगर वह अध्यात्म की ओर अग्रसर हुई तो यह उसकी मानसिकता की पूर्णता ही है भटकाव नहीं.....''मैं हूं ही नहीं...तो वेदना कैसी ? मैं कृष्ण में समा गई हूं, अब कुछ नहीं दिखता सिवा कृष्ण के...अब तो बेलि फ़ैल गई कहा करें कोई....
बीसवीं सदी के आरंभिक दशकों में भारत की सामाजिक स्थिती और बदलावों का विस्तृत वर्णन इस उपन्यास में है। सिनेमा,नाटक,गायन, वादन कलकत्ता,बम्बई का अभिजात वर्ग और कला का दीवाना युवा वर्ग जो कला के साथ-साथ मौजूदा परिस्थितियों को भी नज़र की सीमा में रखता है। बंगाल के आकाल की विद्रूपता,विड्म्बना को दूर करने में नाटक के द्वारा धन संग्रह,चंदा आदि कार्यों को करने से नहीं चूकता। लेखिका की पैनी दृष्टि ने उस काल का बखूबी चित्रण अपनी लेखनी में उंडेला है।
बेहद असरदार,खूबसूरत भाषा से युक्त यह उपन्यास उन दशकों को भारतीय मंच पर बड़ी सुघड़ता से फ़ोकस करता है। घटनाएं एक बहाव में घटती चली जाती हैं और उन समीकरणों को तलाशती,उजागर करती एक विस्तृत कैनवास में ढलती चली जाती हैं।
यह पटाक्षेप है या अन्तिम दृश्य की शुरुआत इस वाक्य में जैसे सम्पूर्ण उपन्यास का कलेवर सिमट आया है। कहना न होगा कि यह उपन्यास पाठकों के बीच निश्चय ही अपनी ज़गह बनायेगा।
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टेम्स की सरगम-
मानव प्रकाशन
131 चितरंजन एवेन्यू
कोलकाता-700073-
पृष्ठ-273
बहुत विस्तृत और सुन्दर चर्चा । धन्यवाद इस जानकारी के लिये।
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