शनिवार, 31 अक्तूबर 2015

चुभती हैं कुछ किरिचें 'काँच के शामियाने' की

“आंचलिक बोली के चुटीलेपन के साथ रोजमर्रा की छोटी-छोटी घटनाओं के ताने-बाने से बुनी इस कथा में हर लड़की कहीं-न-कहीं अपना चेहरा देख पाती है. यही इस उपन्यास की सार्थकता है.” सुधा अरोड़ा द्वारा रश्मि रविजा के पहले उपन्यास ‘काँच के शामियाने’ भूमिका की मानिंद लिखी ये पंक्तियाँ पढ़ने के बाद आँखें समूचे उपन्यास में रोजमर्रा की छोटी-छोटी घटनाओं के ताने-बाने को तलाशती हैं. छोटी-छोटी घटनाओं का ताना-बाना मिलता है मगर इस कदर उलझा कि महज एक परिवार या फिर कहें कि पति-पत्नी के मध्य ही सिमटा नजर आता है. एक समीक्षक की दृष्टि से मेरा मानना है कि कम से कम ऐसे ताने-बाने में कोई भी लड़की अपना चेहरा नहीं देख पाती होगी. रश्मि रविजा का ये पहला उपन्यास है और जिस तरह की उनकी लेखनी, उनके विषय, उन विषयों की गंभीरता उनके ब्लॉग अथवा सोशल मीडिया की अन्य दूसरी सामग्री में देखने को मिलती है वैसी कसावट, वैसी गंभीरता इस उपन्यास में देखने को नहीं मिलती है.

यदि इस उपन्यास को एक ऐसी स्त्री की नजर से देखा जाये जो अपने पति, ससुराल से प्रताड़ित हो; अपना अस्तित्व बचाए-बनाये रखने को संघर्षरत हो; लगातार विषम परिस्थितियों के बाद भी वो न सिर्फ अपना विकास करती है वरन अपने बच्चों का भी विकास करती है तो निश्चित ही ये उपन्यास ऐसे ताने-बाने का निर्माण करता है. एक युवती का विवाह, विवाह पूर्व ही पति के स्वभाव को लेकर आशंका, उस आशंका का सही निकलना, पति के साथ-साथ ससुराल वालों का नित्य प्रति प्रताड़ना देना, युवती के परिजनों द्वारा ससुरालीजनों की शिकायत करना, परिस्थितियों के वशीभूत उस लड़की का वापस ससुराल आना, ससुरालियों का स्वार्थवश तात्कालिक रूप से स्वभाव परिवर्तन होना, इन्हीं विषम परिस्थितियों में तीन-तीन बच्चों का जन्म होना, मार डालने तक के हालात बनने के साथ-साथ तीनों बच्चों सहित आत्महत्या करने जैसी स्थिति का उत्पन्न हो जाना और अंततः उस युवती का अपने तीनों बच्चों सहित पति का घर हमेशा-हमेशा के लिए छोड़कर आत्मनिर्भर बनने की कवायद करना, नया संघर्ष छेड़ना अवश्य ही कृति को कथा-प्रवाह देता है. इसके बाद भी इस कथा-प्रवाह में कई-कई अवरोध औपन्यासिक विकास में बाधक बनते हैं.  

ये किसी भी रूप में समझ से परे है कि किसी भी कालखंड में, देशकाल में कोई युवक (राजीव) महज इस कारण से किसी युवती (जया) से विवाह करेगा क्योंकि जया ने राजीव के प्रेम-निवेदन को ठुकरा दिया था. इसे उपन्यास विकास में बाधक इस कारण से कहा जा सकता है क्योंकि पूरे उपन्यास में राजीव के चरित्र का विस्तार नहीं किया गया है. कहीं भी लेखिका द्वारा उसको दुश्चरित्र नहीं दिखाया गया है. यदि लेखिका द्वारा राजीव के चरित्र को कुछ इस तरह से उभारा गया होता कि उसके कई-कई लड़कियों से सम्बन्ध हैं, उसने कहीं और विवाह कर रखा है तब जया से बदला लेने का मंतव्य कुछ हद तक स्पष्ट हो सकता था. इसके अलावा भी कुछ अन्य परिस्थितियों का निर्माण लेखिका द्वारा बदला लेने के कारक के सम्बन्ध में किया जा सकता था. इसके अलावा किसी पिता का अपनी ही संतानों से इस हद तक नफरत करने के कारण भी लेखिका द्वारा सामने नहीं रखे गए हैं. राजीव अथवा उसके परिवार वालों द्वारा जया को दुश्चरित्र का आरोप लगाते भी कहीं नहीं दिखाया गया है. ऐसे में राजीव किस कारण से अपने तीनों बच्चों से भयंकर नफरत करता है, समझना कठिन होता है. उसकी नफरत इस कदर उग्र रूप धारण करती है कि अपनी ही बेटी के बारे में सोचना ‘बच गई ये. हम तो इसके ऊपर जाने की खबर का इंतज़ार कर रहे थे और सोच रहे थे, छुट्टी लेना पड़ेगा.’ और एक दूसरी बेटी को फेंकने की घटना राजीव की नफरत की भावना को स्पष्ट नहीं करती हैं. यदि लेखिका द्वारा घर से बाहर के चंद दृश्यों को समाहित किया गया होता जिसके द्वारा कथा-प्रवाह का वातावरण निर्मित होता तो संभवतः कुछ स्पष्टता परिलक्षित होती.  


रश्मि जी की वर्तमान कृति संभवतः उनकी आरंभिक वय में समाज के देखे-सुने अनुभवों का प्रस्तुतीकरण है क्योंकि कालखण्ड, वातावरण वर्तमान से बहुत पीछे का एहसास कराता है. यदि उपन्यास के कालखण्ड (जिसके बारे में लेखिका ने कहीं स्पष्ट रूप से नहीं लिखा, महज घटनाओं, कथा के सहारे स्पष्ट होता है) को देखा जाये तो एक ऐसे समय में जबकि फोन कॉलोनी भर में किसी एक घर में हो, बैंक में पाँच हजार रुपये महीने का वेतन भी बहुत हो तब किसी शोषित स्त्री का अपने तीन-तीन बच्चों सहित पति का घर छोड़कर चले आना, छोटे-छोटे कार्यों के द्वारा स्व-विकास करना, अदालती कार्यवाही का सामना करना, दुष्ट पति के प्रत्येक प्रताड़ित करने वाले क़दमों का साहस के साथ सामना करना यकीनन किसी भी महिला के सशक्त होने को प्रदर्शित करते हैं. किसी भी कृति की सफलता-असफलता, उसकी कथा की स्वीकार्यता-अस्वीकार्यता किसी समीक्षा के बजाय पाठकों पर निर्भर करती है. जहाँ रश्मि रविजा का पहला उपन्यास शोषित स्त्री को हताश न होने देने, संघर्षों का मुकाबला करने, विपरीत परिस्थितियों में धैर्य न खोकर स्व-विकास करने का सन्देश देता है वहीं वर्तमान के स्त्री-विमर्श को भी राह दिखाता है. यदि स्त्री को प्रताड़ित करने में पुरुष (या कहें कि उसका पति) आगे है तो कहीं न कहीं महिला (सास, ननद आदि के रूप में) भी शामिल है. यदि स्त्री स्व-विकास करती है तो भी कहीं न कहीं उसके पीछे पुरुष (भाई, जीजा आदि) सहित महिला (माँ, दीदी आदि) भी शामिल होते हैं. समाज महज बुरे लोगों से नहीं भरा है और न ही सभी जगह अच्छे लोग मिलते हैं. प्रत्येक स्त्री ही शोषित नहीं है और न ही प्रत्येक पुरुष शोषण करने में लगा हुआ है. ऐसे में यदि ‘काँच के शामियाने’ की हलकी-फुलकी किरिचें नजरअंदाज कर दी जाएँ तो कथा अपना सन्देश देने में कुछ हद तक सफल अवश्य होती है. पाठकों को रश्मि जी से अपेक्षा रहेगी कि वे जल्द ही इसके संशोधित संस्करण से तमाम किरिचों को दूर कर कृति को चरम पर ले जाएँगी. 

समीक्षक : डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर 






कृति : काँच के शामियाने (उपन्यास)
लेखिका : रश्मि रविजा
प्रकाशक : हिन्द युग्म, नई दिल्ली
ISBN : 978-93-84419-19-6
संस्करण : पहला (2015)

रविवार, 5 अप्रैल 2015

वेदबुक से फेसबुक तक स्त्री : महिला-स्थिति को बयान करती पुस्तक


वर्तमान में जबकि सूचना क्रांति के साधन तीव्रता से सबके हाथों में पहुँच रहे हों; आधुनिकता के वशीभूत समाज की परम्पराएँ ध्वस्त होने की कगार पर हों; नियम-परिपाटी को कहीं हाशिये पर लगाकर निश्चित मानदंडों को विखंडित किया जा रहा हो; बंधी-बंधाई परिभाषाएं बदलने की कोशिशे जारी हों ऐसे समय में स्त्री की स्थिति पर लेखन का कार्य दुरूह भले ही न कहा जाये किन्तु जीवटता वाला अवश्य ही कहा जायेगा. तलवार की धार पर चलने से समान कार्य उस समय और भी दुष्कर हो जाता है जबकि कालखंड को वेदबुक से फेसबुक तक निर्धारित किया गया हो. इसके लिए निश्चित ही पुस्तक के लेखक पुनीत बिसारिया जी बधाई के पात्र हैं. अनेक नवीन विषयों को उदघाटित करने वाले सुप्रसिद्ध साहित्यकार पुनीत बिसारिया ने ‘वेदबुक से फेसबुक तक स्त्री’ के द्वारा स्त्री की उड़ान को कलमबद्ध करने का एक साहसिक प्रयास किया है.

स्त्री की दशा का आकलन करने के लिए लेखक ने वैदिक युग से उसकी यात्रा को आरम्भ किया है. उनके द्वारा वैदिक युग की स्त्रियों के विद्याध्ययन की स्वतंत्रता, सैन्य शिक्षा ग्रहण करने के उदाहरण दिए गए हैं. लोपामुद्रा, रोमसा, घोषा, सूर्या, अपाला, विलोमी, सावित्री, यमी, विश्वंभरा, श्रद्धा, कामायनी, देवायनी आदि के द्वारा दर्शाया गया है कि उस कालखंड में महिलाओं को सम्मानजनक स्थान प्राप्त था. लेखक ने इस बात के भी स्पष्ट प्रमाण दिए हैं कि वैदिककालीन महिलाओं के साथ ही दुर्व्यवहार आरम्भ हो गया था. इसके लिए वे लिंगपुराण का सन्दर्भ देते हैं. ये अपने आपमें आश्चर्य का विषय है कि जिस कालखंड में अनेक विदुषी महिलाओं ने शास्त्रार्थ द्वारा पुरुषों को पराजित किया हो उस कालखंड में स्त्रियों की दशा में गिरावट भी देखने को मिलती है.

मध्यकाल तक आते-आते स्त्रियों की स्थिति और भी बिगड़ गई. इसके उदाहरण में लेखक ने मनुस्मृति (5/154), याज्ञवल्क्य (7/77), रामायण (अयोध्याकाण्ड 24/26 27), महाभारत (अनु०प० 146/55), अश्वमेध पर्व (90/910), शांति पर्व (148/6, 7), मत्स्य पुराण (210/18), आदि को उदाहरण के रूप में सामने रखा है. बौद्धकालीन, मौर्यकालीन महिलाओं की दशा भी उन्नत नहीं थी और रही सही कसर मुस्लिम आक्रान्ताओं ने पूरी कर दी. पर्दा प्रथा, बाल विवाह, सती प्रथा, जौहर प्रथा आदि कुरीतियों का उत्सर्ग इसी समय में देखने को मिलता है. बालिकाओं की शिक्षा पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया. लेखक ने इस विषम स्थिति को दर्शाने के साथ-साथ इस कालखंड की कई शिक्षित महिलाओं के उदाहरण भी सामने रखे हैं जिन्होंने अपने प्रयासों से राजनीतिक घटनाक्रमों में अग्रणी भूमिका निभाई थी. रानी विद्या, रानी दुर्गावती, रानी कर्णवती, ताराबाई, देवलरानी, रूपमती, पद्मिनी, रज़िया सुल्तान आदि के द्वारा लेखक ने तथ्यात्मकता दर्शाई है. लेखक ने अपनी पुस्तक में  ये संकेत देकर कि मुस्लिम स्त्रियाँ तभी बाहर निकलती थीं जब वे अत्यधिक निर्धन हों अथवा लज्जाहीन हों लेकिन वे भी अपना सर ढंके रहती हैं, दर्शाने का प्रयास किया है कि हिन्दू महिलाओं की तुलना में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति अधिक ख़राब थी.

स्त्रियों की दशा के सम्बन्ध में ‘स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है’ जैसे वाक्य को स्त्री-विमर्श का ब्रह्म वाक्य सा घोषित कर दिया गया है और कदाचित लेखक भी इसी के इर्दगिर्द भटकता सा दिखा. स्त्री-विमर्श को एक आन्दोलन के रूप में चित्रित करने के अपने सफल प्रयास में लेखक ने महज पश्चिमी सन्दर्भों में स्त्री-विमर्श को तलाशने का प्रयास किया. भारतीय सन्दर्भों में आधुनिक स्त्रियों के रूप में प्रस्तुत लेखक के सन्दर्भ कहीं से भी भारतीय स्त्री-सशक्तिकरण की धार को मोथरा नहीं होने देते हैं. ये पुनीत बिसारिया की विशेष दृष्टि रही है कि उन्हों ने अपने आपको उन आरोपों से मुक्त रखने में सफलता पाई है, जैसा कि तमाम महिला मुक्ति संगठनों की महिलाएं लगाती हैं, कि पुरुषों द्वारा स्त्री-विमर्श, स्त्री-सशक्तिकरण का प्रस्तुतीकरण इस रूप में किया जाता है कि जिससे उसकी धार को मोथरा किया जा सके. सावित्री बाई फुले से आरम्भ हुई उनकी यात्रा में रमाबाई रानाडे भी शामिल हैं, पंडिता दयाबाई की भूमिका को भी स्पष्ट रूप से चित्रित किया गया है, मुस्लिम शिक्षा व्यवस्था को सुधारने के लिए अग्रणी भूमिका निभाने वाली बेगम वाहिद जहाँ खां के योगदान को भी लेखक ने यथावत सामने रखा है.

सम्पादकीय हस्तक्षेप से दूर सोशल मीडिया के इस शक्तिशाली मंच ‘फेसबुक’ ने स्त्री-पुरुष को वैचारिक उड़ान का अनन्त आकाश उपलब्ध करा दिया है. इस आकाश में स्त्रियों के कई-कई रूप अपनी-अपनी उड़ान भरते, कुलाचें भरते दिखाई देते हैं. ‘वेदबुक से फेसबुक तक स्त्री’ का सबसे प्रभावशाली और सर्वाधिक दुरूह पड़ाव फेसबुक की स्त्री को परिभाषित करने में समझ आता है. फेसबुक पर सक्रिय या कहें कि अपनी उपस्थिति को दर्शाने वाली महिलाओं की श्रेणियों का विभाजन करते में लेखक ने अतिरिक्त सतर्कता बरतने का प्रयास किया है, जो उनकी शोधपरक दृष्टि को ही इंगित करता है. महिलाओं के प्रति अतिशय उन्मुक्तता दर्शाने वाली मानसिकता यहाँ है तो महिलाओं को महिला समझकर अपने अस्तित्व पर गर्व कराने का बोध जगाने वाली महिलाएं भी हैं. ये कह देना कि हम जो अपने घरों से एक बार बाहर निकले हैं, तो अब वहाँ लौटकर नहीं जायेंगे, महिलाओं की स्वतंत्रता का बेजा इस्तेमाल करने की तरफ प्रेरित करने जैसा ही है. इस बेजा स्वतंत्रता को भी पकड़ने वाली और उनसे माता-पिता को सचेत करने वाली लेखिकाएं फेसबुक पर बेबाक राय देती हैं.

लेखक ने फेसबुक पर स्त्री को उसी के बरअक्श देखने के प्रयास में निरपेक्ष दृष्टि अपनाने का भरपूर प्रयास किया है किन्तु मानवीय स्वभाव बिना भटके मानता नहीं है और कभी-कभी परिस्थियाँ ऐसा करवा देती हैं. संभवतः लेखक के स्थिर मन को भटकाने में नई दिल्ली में १६ दिसंबर २०१२ को हुए घनघोर अमानवीय कृत्य ने अपना असर दिखाया और दिल दहलाने वाले इस कृत्य ने लेखक को अपने आसपास ही सिमटा लिया. इसी के चलते लेखक फेसबुक की स्त्री को दिल्ली काण्ड के आसपास समेट बैठे हैं और बहुत सी जानी-अनजानी बातों को वे जाने-अनजाने में छिपा सा गए हैं. संभव है कि ऐसा करने के पीछे उनकी मंशा सामाजिक सद्भाव को स्थापित करना ही रहा हो क्योंकि फेसबुक की तमाम स्त्रियों की चर्चा करते वे दिखते हैं किन्तु गैर-हिन्दू महिलाओं की दशा-दिशा पर चर्चा करने में किंचित संकोच दर्शाते हैं. कुछ ऐसा ही संकोच वे धार्मिक ग्रंथों में महिलाओं की स्थिति के सन्दर्भ को चित्रित करने में दिखाते हैं. संस्कृत, बौद्ध, जैन ग्रंथों को विस्तृत रूप से सामने रखते हैं किन्तु मुस्लिम ग्रंथों के प्रति परहेज करते दिखते हैं. फेसबुक का एक कथन कि ‘स्त्री का रहस्मय रूप ही पुरुष को सबसे अधिक मान्य है. जिसका हम वर्णन नहीं कर पाते उसे रहस्मय बना देते हैं. रहस्मय बनाने का अर्थ है स्त्री को न समझना’  भी लेखक की रहस्मयता को बनाये रखता है. लेखक द्वारा वर्गीकृत स्त्री अपने आकाश को असीमित रूप से विस्तृत करने में जिस तरह से फेसबुक से जुड़ी है, उसे देखते हुए इस बिंदु पर अध्ययन के और भी कई आयाम, नए-नए आधार निर्मित किये जा सकते हैं. अपने आपमें विशुद्ध अछूते विषय को उठाकर पुनीत बिसारिया ने अनूठा कार्य किया है जो न केवल स्त्री-विमर्श की नवीन संकल्पना को तैयार करेगा वरन शोधार्थियों के लिए भी अनुसन्धान के नए द्वार खोलेगा. फेसबुक पर इस तरह के सन्देश तो बहुतायत में मिल जाते हैं कि ‘यदि आप पुरुष हैं तो स्त्री का सम्मान करें. अगर आप स्त्री हैं तो अपने स्त्रीत्व पर गर्व करें’ किन्तु किसी भी ऐसे सन्देश का जिक्र नहीं मिलता कि यदि आप महिला हैं तो पुरुष का सम्मान करें और दूसरी स्त्री को भी सम्मान दें, संभवतः लेखक की अगली पुस्तक-यात्रा में ऐसा कुछ पढ़ने को मिले? ‘वेदबुक से फेसबुक तक स्त्री’ की यात्रा कहीं-कहीं भले अधूरी सी दिखाई दे किन्तु ये लेखक की असफलता नहीं वरन विचार-विमर्श के वे बिंदु हैं जिनके द्वारा तर्क-वितर्क करके और आगे तक जाया जा सकता है.

लेखक को सफलता की शुभकामनाओं और स्त्री-शक्ति,मातृ-शक्ति को उसके गौरवशाली भविष्य की राह निर्मित करने की मनोकामनाओं के साथ अपेक्षा है कि स्त्री यात्रा का ये चरण समाज को जगाने की दिशा में सार्थक कदम सिद्ध हो. 
 .
 

डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर 
सम्पादक - स्पंदन, मेनीफेस्टो

बुधवार, 21 जनवरी 2015

3D of LIFE : प्रेम, सहयोग, समर्पण, समझौते की कहानी



इधर युवा पीढ़ी तेजी से लेखन की दिशा में अग्रसर हुई है और इस कड़ी में अपने पहले उपन्यास ‘3D of Life’ के द्वारा एक और युवा नाम पंकज गुप्ता का जुड़ जाता है. अंग्रेजी साहित्य के बहुसंख्यक नवोन्मेषी लेखकों की भांति पंकज भी इंजीनियरिंग क्षेत्र से जुड़े हैं और आई०टी० प्रोफेशनल हैं. हाल के वर्षों में बाज़ार में आये अंग्रेजी उपन्यासों में बहुतायत में ऐसे हैं जो प्रबंधन, इंजीनियरिंग, प्रोद्योगिकी आदि क्षेत्रों से जुड़े लोगों द्वारा लिखे गए हैं, जिनमें मुख्य रूप से उनके इन क्षेत्रों के अनुभवों का संग्रह सा दिखता है. पंकज अपने इस पहले उपन्यास में एक कथा कहने का, उसको प्रवाह देने का प्रयास करते हैं और बहुत हद तक सफल भी होते हैं. उपन्यास में कथा का कालखंड विस्तृत है किन्तु पंकज कथा को अनावश्यक विस्तार देने से बचे हैं. कहानी के मूल में रहे एकमात्र पुरुष पात्र के बचपन से लेकर युवावस्था तक की कहानी को वे सहजता से पाठकों के समक्ष रखते हैं. 

जैसा कि अक्सर देखने में आया है कि किसी भी लेखक द्वारा अपने अतीत, अपने अनुभवों, अपने वातावरण, स्वयं के भोगे-देखे अनुभवों को उसकी कृतियों में स्थान अवश्य ही मिलता है. पंकज भी अपनी पहली कृति में इसका मोह त्याग नहीं सके हैं और कथा फलक का आरम्भ अपने छोटे से कस्बे कालपी, जालौन, उरई आदि की घटनाओं से करते हैं. बचपन की चंद घटनाओं को पाठकों के साथ तारतम्य जोड़ने की दृष्टि से सामने रखकर पंकज मुख्य कथा की और मुड़ जाते हैं. ये उनके लेखन कौशल का ही कमाल कहा जायेगा कि वे इसे बहुत ही सहजता से मोड़ने में सफल रहते हैं. फ्लैशबैक में चल रही उनकी कहानी अपने प्रवाह को अवरुद्ध नहीं होने देती है. उपन्यास ‘3D of Life’ की कहानी को लेखक ने मूल रूप से Love, Support and Sacrifice की आधारभूमि पर विकसित किया है, जिनसे कहानी का मुख्य पात्र समय-समय पर प्रभावित होता रहता है. उपन्यास की कथा के रूप में मुख्य पात्र के बचपन की चंद घटनाएँ, उसकी शिक्षा, स्कूली प्रेमाकर्षण, फिर उसका बिछड़ना, उच्च शिक्षा हेतु अपने छोटे से कस्बे से बाहर जाना और वहाँ उसको वास्तविक प्रेम का एहसास होना आदि वे स्थितियाँ हैं जिनके द्वारा उपन्यास की कथा विकास करती है. कालांतर में प्रेम परवान चढ़ने से पूर्व ही पारिवारिक जिम्मेवारियों का बोझ उस युवक को कैरियर का चयन करने अथवा अपने प्यार को सहयोग करने के अंतर्द्वन्द्व में खड़ा कर देता है. इस बिंदु को उपन्यास का चरम कहा जा सकता है जहाँ आकर पाठक उपन्यास के दोनों पात्रों (युवक-युवती) से अपना जुड़ाव महसूस करता है. जीवन के सफ़र में बहुत छोटी-छोटी घटनाओं से उत्पन्न किन्तु कभी न भुला पाने की टीस के सहारे रची-बुनी गई कथा यद्यपि छोटी, सीधी, सपाट मालूम पड़ती है किन्तु लेखक पंकज ने संवेदनाओं को उकेरने के कोई कसर नहीं छोड़ी है. 

भले ही ये पंकज की पहली कृति हो किन्तु वे पठनीयता को बनाये रखने में नहीं चूके हैं. रोचकता के बिंदु पर आकर उनके द्वारा बचपन में दर्शाई गई झाड़-फूंक की घटना बहुत देर तक पाठकों के अंतर्मन को जगाये रखती है और बार-बार सोचने को विवश करती है कि कब उस घटना का क्लाइमेक्स टूटेगा. उनके मुख्य पात्र को लगातार किसी न किसी अंतर्द्वन्द्व में घिरा देखा गया है और उसके अंतर्द्वन्द्व के साथ पंकज पाठकों को भी जोड़ने में सफल होते हैं. हां अथवा न की स्थिति में कई बार खुद पाठक निर्धारित नहीं कर पाते कि स्थिति क्या बनेगी. किस्सागोई के मामले में पंकज अपने पहले ही उपन्यास में सफल प्रतीत होते हैं. इसके बाद भी चंद बिंदु ऐसे हैं जिनको यदि आलोचक की दृष्टि से देखा जाये तो वहाँ पर हलकी त्रुटि समझ आती है अन्यथा वे भी कथा-प्रवाह में पाठकों की निगाह के सामने से सफलतापूर्वक गुजर जाते हैं. इसके पीछे कथा का धाराप्रवाह होना, कथ्य की कसावट, शिल्प का एकबद्ध होना, संवेदनात्मक होना, प्रेम का चरमोत्कर्ष होने के बाद भी मर्यादा, संयम दिखलाई देना आदि प्रमुख रहा है. 

ऐसे बिन्दुओं में संवादों का लम्बा होना प्रमुखता से कहा जा सकता है. उपन्यास की सम्पूर्ण कथा दो लोगों के मध्य वार्तालाप के परिणामस्वरूप उत्पन्न होती है. इसके बाद भी ये बात खटकती है कि वार्तालाप एक ही व्यक्ति की तरफ से जारी रहता है. लेखक ने दिखाया है कि मुख्य पात्र अपनी सहकर्मी के पति की समस्या के समाधान हेतु आता है किन्तु खुद लेखक भी संवेदनात्मकता में इसी मुख्य पात्र की कथा तक ही खुद को सीमित कर लेता है. ये भी इस कृति की एक कमी समझी जा सकती है. स्कूली शिक्षा के समय उसकी कक्षा में एक लड़की का प्रवेश और उसके बाद की घटनाओं में किसी अन्य सहपाठी का किसी भी प्रकार का चित्रण न दिखाया जाना भी खटकता है. हालाँकि लेखक ने मुख्य पात्र के चंद मित्रों द्वारा ऐसा करना दिखाया है किन्तु स्कूल के, कक्षा के विद्यार्थियों द्वारा किसी भी तरह की गतिविधि को सामने न लाना समझ से परे रहा. इसी तरह बचपन की चंद घटनाओं, जिनका होना, न होना उपन्यास की कथा पर किसी भी तरह का प्रभाव नहीं डालता है, का आना कथा-पाठक के मध्य संवाद सा स्थापित करता है. ऐसा करने में पंकज सफल सिद्ध होते हैं. 

आलोचना की दृष्टि से यदि उक्त चंद बिन्दुओं को नजरंदाज़ कर दिया जाये तो पंकज का पहला उपन्यास निराश नहीं करता है. संवेदनाओं की भावभूमि पर निर्मित उनका कथ्य-संसार प्रेम, सहयोग, परिवार, समझौते, कैरियर आदि को एकबद्ध करता हुआ आगे बढ़ता है. पंकज साहित्य जगत को और भी नई-नई कृतियाँ उपलब्ध करवाएंगे, ऐसी अपेक्षा इस पहले उपन्यास को पढ़ने के बाद की जा सकती है.