दरवाज़ा खोलो बाबा! कविता की पंक्तियाँ अपने आपमें भाव का स्पष्ट प्रस्फुटन करती हैं. पराया कर देने जैसी मानसिकता के बराबर से अधिकारपूर्वक पुकार लगाने की भावना बदलते समाज का, बदलती मानसिकता का परिचय देती है.
जैसा कि काव्य-संग्रह की रचनाकार मोनिका
शर्मा अपनी बात में स्पष्ट रूप से कहती हैं कि रचनाएँ बदलते परिवेश के
अवलोकन और नव-स्पंदन से परिपूर्ण पुरुष हृदय की अनुभूतियों का लेखा-जोखा सा है.
और भी बहुत कुछ सकारात्मक भाव में अपनी बात में वे कहती हैं,
वह सब उनकी कविताओं में परिलक्षित भी होता है. साहित्यिक भाव-भूमि पर संभवतः यह
विषय नया हो सकता है, इसलिए भी नया हो सकता है क्योंकि पिता
के संवेदना का, भावनात्मकता का,
सकारात्मकता का पहलू इस रूप में सामने लाने का प्रयास किया नहीं गया है. पिता को
जब भी देखा-दिखलाया गया तो बस पुरुष रूप में और इसी कारण से उसमें कोमलता, स्नेहिलता, करुणा जैसी भावना के पक्ष पर विचार ही
नहीं किया गया. मोनिका शर्मा के काव्य-संग्रह दरवाज़ा खोलो बाबा की कविताएँ
पिता के उस रूप को प्रदर्शित करती हैं जो कदाचित कभी चर्चा में नहीं रहा है.
चार खण्डों में विभक्त भाव-बोध कुल 64 कविताएँ या कहें कि इतनी तरह की भावनाओं
को समेटे पिता के रूप को बेटी की नज़रों से सामने आती हैं. पिता, पिता-बेटी, पुरुष-मन और प्रश्न खंड के रूप में भावनाओं को समेटे यह संग्रह पिता के दायित्व
बोध को बखूबी बताता है. बहुत सीमित-समावृत होता है/आकाश पिता की इच्छाओं
का/माता-पिता का कर्तव्यपरायण बच्चा होने के/दायित्वबोध की धुरी से/अपने बच्चों के
उत्तरदायित्वों के/अक्ष तक सिमटा.
मेरे कम
शब्द और गहरी आवाज़/अनुशासित अभिव्यक्ति का राज/वक्त की धूप में पककर/तुम समझ
पाओगे/फिर मेरे मन के करीब आओगे... और जान जाओगे/इतना सब होकर भी/मैं भीतर से रीता
हूँ/क्यूँकि मैं पिता हूँ. जैसी अभिव्यक्ति पिता के उस अव्यक्त पक्ष का चित्रण है जिसे समझा ही नहीं
गया है. कभी माना ही नहीं गया कि पिता भी एक अदृश्य गठरी को उठाये जीवन-समर
में लगातार संघर्ष कर रहा है. पुरुष की कठोरता का आवरण उसे ओढ़ाकर उसकी समग्र चेतना
को एकपक्षीय बना दिया गया है. नहीं समझा जाता कि जीवन रण के हर संग्राम को
जीतने/हर चक्रव्यूह को भेदने के/बावजूद-/पिता कभी विजेता नहीं कहे गए. इसे
संयोग नहीं कहा जा सकता,
इसे सहज भी नहीं कहा जा
सकता बल्कि यह भी समाज के एक वर्ग को नजरंदाज करने जैसा कृत्य है.
पिता को पुरुष
के खाँचे में बंद करके उसके व्यक्तित्व के तमाम पहलुओं को समाज में भले ही विस्मृत
किया जाता रहा हो मगर एक बेटी के मन ने, उसके दिल ने, उसकी भावनाओं ने पिता को आदर्श व्यक्तित्व के
रूप में ही देखा-जाना-समझा होता है. ऐसा तब से-/जब नहीं होता ज्ञान/स्त्री और
पुरुष के बीच अंतर का भी/ना ही होती है समझ/कोई प्रतिमान गढ़ लेने की. बेटी की
अपने पिता के प्रति कोमलकांत भावनाओं के कारण ही वह समझती है कि अपनी चिंताओं
की चिट्ठियाँ/किसे लिखते पिता? तो वही बेटी पिता
का माँ बनना देख, ममता की नई परिभाषा गढ़ते देख कह उठती है
तुम्हारे मन के निर्वात/और मेरे मन की शून्यता को पूरने के लिए/पीहर आने और मिल
बैठ-बतियाने के/आमंत्रण की एक चिट्ठी/मैंने अपने पते पर प्रेषित कर दी है.
कितना कोमल
एहसास का भाव जागृत होता है जब किसी बेटी को अपने पिता का माँ बनना नजर आता है. उस
पिता के व्यक्तित्व का कितना स्त्रियोचित गुण सामने आता है जब एक बेटी को पिता
के-/हर बर्ताव/ लगाव/ भाव और चाव से/अब माँ की गंध आती है. इस रूप, इस गंध का स्मरण महज इसलिए नहीं होता कि अब माँ
नहीं दिख रही है बल्कि इसलिए पिता के बाह्य कठोर रूप से अलग एक मासूम, निश्छल, कोमल स्वरूप दिखाई देता है. जीवन की भट्टी के ताप में/पुरुष भी गलाते
हैं/स्वयं को का भाव उसी समय उपज सकता है जबकि इस कठोरता का दूसरा पक्ष भी समझ
लिया गया हो. बिना एक पक्ष देखे दूसरे पक्ष का अवलोकन कर पाना सहज नहीं होता है.
भयभीत होते
हैं पुरुष भी के द्वारा
लेखिका ने पिता के उन तमाम रूपों के द्वारा पुरुष-मन को सामने रखा है जो घर में दबे
पाँव लौटने पर घबराता है. घबराता है वह पुरुष अपनी माँ से, खौफ खाता है वह पुरुष अपनी पत्नी से और नन्हीं बिटिया से भी कम नहीं
डरता/उनका ममताबोध/कि देर रात लौटे बाबा की पदचाप से/कहीं खुल ना जाये/लाड़ली की
नींद, आखिर पुरुष रूप में एक पिता बसा होता है. डर के इस प्रेमपरक स्वभाव के
साथ-साथ पलायन की पीड़ा को भी ये महसूस करते हैं, सहते हैं.
पिता के विविध रूपों, भावनाओं, एहसासों से परिचय करवाती हुईं मोनिका
शर्मा अंत में सम्मान-संवेदना के मोर्चे पर अनुत्तरित कुछ सवाल भी छोड़
जाती हैं. ये सच है कि वर्तमान परिदृश्य में बहुत हद तक पुरुष मानसिकता में बदलाव
हुआ है. उनके कार्यों, कार्य-शैली में भी परिवर्तन देखने को
मिलने लगे हैं. घर, परिवार, जीवनसाथी आदि जैसे विभिन्न बिन्दुओं पर उनकी सकारात्मकता देखने को मिलने
लगी है. इन तमाम सकारात्मक पक्षों के बाद भी सवाल उठता है कि स्वभाव से लेकर
भाव विन्यास तक/अपना संशोधित संस्करण कब लाओगे तुम? यह सवाल उठना
स्वाभाविक है क्योंकि अभी भी बहुत से पुरुष मन टीसते मन को नहीं टटोल पाते हैं.
अभी भी पौरुषिक अहंकार उनको स्नेह, सहयोग जैसी भावना
से दूर रखता है. हर थाप अनसुनी ही रही... क्यों? ऐसा सवाल है जो समाज में आज भी बहुतेरे पुरुषों के सामने खड़ा है. ऐसे
सवालों का जवाब इसलिए भी मिलना अपेक्षित है क्योंकि एक इंसान की विमंदित सोच
के/विचलन की यह डिग्री/समाज को हर कोण से डिगा देती है.
मोनिका
शर्मा की पुकार दरवाज़ा
खोलो बाबा निश्चित ही उस व्यक्तित्व को (विषय तो नहीं कहेंगे क्योंकि पिता सबकुछ
हो सकते हैं मगर विषय नहीं हो सकते) विमर्श के केन्द्र में लाती है जिसके बारे में
अभी तक सकारात्मक चिंतन किया नहीं जा सका. पिता के कठोर, अनुशासित, गम्भीर व्यक्तित्व के पीछे कोमल, उदार, संवेदित माँ जैसा
स्वरूप भी छिपा होता है, बस उसे एक बेटी की नजर से देखने की
आवश्यकता है.
समीक्षक : डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
+++++++++++++++++++++++++
कृति : दरवाज़ा खोलो बाबा (कविता संग्रह)
लेखिका : डॉ० मोनिका शर्मा
प्रकाशक : श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली
संस्करण : प्रथम, 2021
ISBN : 978-93-92617-32-4