आधुनिक
समाज में प्रेम को महज दो शब्दों में ही सीमित करके रख दिया गया है. पहली नजर के प्रेम
के मायने अब देहयष्टि के इर्द-गिर्द केन्द्रित हो गए हैं. ऐसे संक्रमण भरे समय में
जबकि प्रेम का तात्पर्य शारीरिक आकर्षण से लगाया जाने लगा है; प्रेम का सम्बन्ध
शारीरिक संबंधों से माना जाने लगा है कथाकार बृज मोहन जी का उपन्यास नौ
मुलाकातें सुखद अनुभूति कराता है. बृज मोहन जी विगत कई वर्षों से
निरन्तर लेखन करते हुए पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं किन्तु उम्र के
इस पड़ाव पर आकर जहाँ कि मनुष्य नाती-पोतों के साथ खेलने-कूदने में, उनको परियों की
कहानियाँ सुनाने में व्यस्त हो जाता है, वे समाज को सार्थक कहानी सुना रहे हैं. उनके
समीक्ष्य उपन्यास में कथा-नायक को पहली मुलाकात में ही कथा-नायिका से प्यार हो जाता
है मगर उस प्यार में इतनी गम्भीरता दिखाई देती है कि उसमें मिलन की आतुरता होने के
बाद भी शारीरिक मिलन की उत्कंठा नहीं होती है. प्रथम दृष्टया उपन्यास का शीर्षक
संभवतः पाठकों को भ्रमित सा करे किन्तु जैसे ही पाठक उपन्यास में प्रवेश करता है
वैसे ही पहली पंक्ति उसे चौंकाती सी है. मैंने मन ही मन जोड़ा, इति से मेरी
यह नौंवी मुलाकात होगी. चालीस वर्ष की अवधि में नौंवी मुलाकात. चौंकना स्वाभाविक
है, चालीस वर्ष की अवधि आर मुलाकातें मात्र नौ. कच्ची उम्र के प्यार से लेकर
परिपक्व होने तक की यात्रा और मात्र नौ मुलाकातें. हो सकता है कि ये परिस्थिति आज
के युवाओं के लिए हास्य का विषय बने किन्तु बृज मोहन जी ने जिस खूबसूरती से
पूरे उपन्यास में नौ मुलाकातों को पिरोया है वह उन युवाओं के लिए सार्थक सन्देश हो
सकता है, जिनके लिए प्रेम का तात्पर्य झाड़ियों के पीछे का मिलन है; शारीरिक आवेग
को शांत करने का माध्यम है; परिवार के विरुद्ध विद्रोह है.
ऐसा
नहीं है कि बृज मोहन जी के नायक-नायिका विद्रोह नहीं करते हैं. वे ऐसा करते
भी हैं मगर अपने आपसे. उनके ऐसा करने में सामाजिकता का भाव है, पारिवारिक संस्कार हैं. चूँकि सम्पूर्ण उपन्यास में कथाकार ने प्यार का शीर्ष
प्रदर्शित किया है जो तत्कालीन समाज की मनोदशा को स्पष्ट करते हुए अत्यंत शालीनता से
आगे बढ़ता है. जहाँ प्रेम का निवेदन है, प्रेम पाने की उत्कंठा
है, समाज से, परिवार से विद्रोह करने की
भावना है मगर सबकुछ शालीन आवरण में कैद है. नायक-नायिका अपने प्रेम के ज़ाहिर हो जाने
पर किंचित परेशान हैं मगर हताश नहीं. देखा जाये तो वे सहज भाव से आगे नहीं बढ़ते हैं
वरन उनके हालात स्वतः आगे बढ़ने में उनकी मदद करते हैं. यही कारण है कि कथाकार के नायक-नायिका
कहीं भटकते नहीं हैं. कहीं भी वे प्रेम शब्द को मलिन नहीं होने देते हैं.
कथाकार
ने मात्र नौ मुलाकातों में प्रेम-कहानी को सीमित करके प्रेम की गहराई को प्रदर्शित
न किया हो, ऐसा नहीं है. वे बहुत ही सहज भाव से प्रत्येक मुलाकात में प्यार को और
ऊँचा उठाते जाते हैं. गतिशीलता के साथ आगे बढ़ती मुलाकातें नायक के विवाह के साथ
विराम सा लेती दिखती हैं. ऐसे में एक बहुत लम्बी अवधि के बाद नायिका का फोन आना,
नायक से स्टेशन पर मिलने का आग्रह, उन दोनों का साथ-साथ घूमना पाठकों को
आश्चर्यचकित कर सकता है. उनके मन में तरह-तरह के ख्याल पैदा कर सकता है. प्रेम के जिस
आधुनिक बिंदु तक कथाकार नहीं जा सके थे, बहुतेरे पाठक उस बिंदु तक पहुँचने का
अनुमान लगाने लगते होंगे मगर ऐसा कुछ नहीं होता है. विगत आठ मुलाकातों का स्नेहिल
और पावन प्रेम अपनी पावनता को नौवीं मुलाकात में भी बनाये रखता है. शबनमी एहसास के
साथ-साथ आगे बढ़ते हुए जब परिपक्व नायिका माँ रूप में, एक जिम्मेवार नायक पिता के
सामने एक प्रस्ताव रखती है तो पहली मुलाकात से लेकर नौवीं मुलाकात तक का सम्पूर्ण
सफ़र पाठकों की आँखों के सामने एक बार फिर घूम जाता है. प्यार का ऐसा उत्कर्ष विरले
ही देखने को मिलता है.
निश्चित
ही आज के समय में ऐसे प्रेम की कल्पना करना बेमानी सा लगता है. ऐसे समय में जबकि
सबकुछ स्वार्थमय होता जा रहा है तब बृज मोहन जी की नौ मुलाकातें प्रेमपरक
कहानियों के लिए नई आशा का संचार करती हैं. उन नवोन्मेषी कलमकारों और पाठकों के
लिए एक भावनात्मक मंच उपलब्ध कराती हैं जो प्रेम को मात्र मनोरंजन का, दैहिक
आकर्षण का, यौन संतुष्टि का माध्यम मानते आ रहे हैं. नौ मुलाकातें न
सिर्फ नायक-नायिका रिश्तों की गरिमा का बखान करती है वरन पाठकों के मन को भी झंकृत
करती हुई नए आयाम विकसित करती है. मूल्यहीन, सरोकारविहीन होते जा रहे आज के समय
में बृज मोहन जी की कृति स्वागतयोग्य है, साधुवाद की पात्र है.
समीक्षक : डॉ० कुमारेन्द्र
सिंह सेंगर
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कृति : नौ मुलाकातें
(उपन्यास)
लेखक : बृज मोहन
प्रकाशक : एपीएन
पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली-59
संस्करण : प्रथम,
2016
ISBN : 978-93-85296-42-0
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