मंगलवार, 1 मार्च 2011

गहन पीड़ा की उपज - इस कहानी का अंत नहीं -- (समीक्षा -- देवी नागरानी)

गहन पीड़ा की उपज - इस कहानी का अंत नहीं

जिज्ञासा को जन्म देने वाली बेचैनी मुझे पुस्तक के पन्ने पलटने के लिये मजबूर करती रही, उंगलियों की हरकत जारी रही, रुकी तब, जब सोच शिथिल हुई और ठिठकी, नीचे पहली पंक्ति पर नज़र पड़ते ही.... "एक कागज के टुकड़े से कहानी बनी"....सोचती रही , यह कैसा बेजोड़ जोड़ है। कागज़ के टुकड़े से कहानी बनी का क्या मतलब..... पर जब पढ़ती रही तो लगा कि जो कहानी निरंतर प्रवाहित होने के लिये सक्रिय रहती है और समग्र रूप से जीवन से जुड़ती है , वही शायद कहानी है, वही उसका श्रोत भी।

मानव मन वैसे भी लेखिनी की हर विधा का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि होता है, जहाँ भावनात्मक ऊर्जा निरंतर मंथनोपरांत प्रवहमान होती रहती है। कहानी में लेखक अपने रचनात्मक संसार में विलीन हो जाता है, अपने पात्रों के साथ उठता-बैठता है, उन्हीं की तरह सोचता है , सक्रिय रहता है और यहीं आकर कल्पना यथार्थ का रूप धारण करती है। जी हाँ, वह जिज्ञासा को जन्म देनेवाला कहानी संग्रह "इस कहानी का अंत नहीं" है , जिसकी रचनाकार जानी-मानी प्रवासी कथाकार इला प्रसाद हैं जो अपनी ही सोच के तानों-बानॊं से उलझती हुई, प्रसव की गहन पीड़ा को महसूस करते हुए , इस पुस्तक की भूमिका में लिखती हैं- "इस संग्रह की एक- एक कहानी के पीछे , वर्षों की भोगी हुई पीड़ा ,घुटन और विवश क्रोध है, जो मुझे लगातार अन्दर ही अन्दर गलाते रहे हैं।" सोचती हूँ, जिन्दगी की ऐसी कौन सी कशमकश होगी जो ज्वालामुखी की तरह विस्फ़ोटित होने को आतुर है, ऐसा कौन सा तान्डव जीवन में आया होगा जो यह मानव मन मंथन के उपरांत अपने भाव क़लम के माध्यम से काग़ज़ पर उतार लेता है। पढ़ते-पढ़ते यह जाना कि इला जी की कहानियों की भूमिकायें रोजमर्रा जीवन की सच्चाइयों से ओत-प्रोत हैं।

उनकी कहानी "जीत" पढ़ते हुए पाया कि नारी मन का मनोबल रेत के टीले की तरह ढह जाता है। चुनौती देने वाले नौजवान छात्र दुश्मनी निभाने की चुनौती अपनी एक्ज़ामिनर मिसेज़ सिन्हा को देते हैं , तदुपरान्त नारी मन का यंत्रवत, सन्नाटे के घेराव में, अपने आप को अपराधी महसूस करते हुये स्थानीय अख़बार के दफ़्तर में लिखित बयान देना और अगले दिन तक एक ख़बर का बन जाना ज़ाहिर था। शायद नारी मन इसमें भी अपनी जीत देख रहा है , जीत और जीत के नशे का रंग भी कितना निराला है!

इलाजी की और अनेक कहानियाँ आज के वातावरण से जुड़ी हैं- मेल , रोड टेस्ट , ग्रीन कार्ड , सेल , कालेज - जिनका अब इस ज़माने में हर पाठक के साथ परिचय जरूरी है। भुमंडलीकरण के साथ तक़नीकी इज़ाफ़ा हुआ है और इंटरनेट के साथ जुड़कर मेल तक पहुँचे हैं हम। परन्तु इन सब विषयॊं पर एक आम इन्सान के नज़रिये से रोशनी डालना, अपनी विविधता, संकल्पशीलता और प्रस्तुतीकरण को एक सशक्तता प्रदान करना इला जी की खासियत है। "खिड़की" एक ऐसी ही कहानी है, नारी मन की पीड़ा, घुटन और अन्तर्द्वद का दस्तावेज है यह कहानी।

ज़िन्दगी की संकरी पगडंडियों से गुजरते हुये , इलाजी की कहानियों के क़िरदार उन लम्हात से रूबरू कराते हैं, जहाँ ख़ामोशियाँ भी शोर मचाती हैं. शहर के जीवन में अक्सर देखा जाता है कि बेपनाह सुविधाओं के बीच जहाँ कई सुख के साधन, धन दौलत मन चाही मुरादों को पूरा करने में मददगार साबित होते हैं , वही जाने क्यों और कैसे आम आदमी के दिल के किसी कोने में खालीपन का अहसास भर देता है और जब तक वह क़ायम रहता है , इन्सान अनबुझी प्यास लेकर जीवन के सहरा में भटकता है, तड़पता है।

"ग्रीन कार्ड" कहानी में हक़ीक़तों को दर्शाया गया है। परदेस से आनेवाला राजकुमार अपनी पसंदीदा, वतन की लड़की से नाता जोड़कर चला जाता है। कुछ वादे करके , कुछ वीज़ा के हवाले देकर और फ़िर देखते ही देखते दिन, हफ़्ते, महीने और फ़िर साल हाथ से रेत की तरह फ़िसलते चले जाते हैं। रिश्तों की शिला भरभरा जाती है। रिश्ते तो बुने जाते हैं पसीने के तिनकों से, अहसासों के तिनको से, सम्बन्धों की महत्त्व से, तब कहीं जाकर अपनत्व की वो चादर उस रिश्ते को सुख-दुख की धूप-छाँव में, बारिश, आँधी, तूफ़ान में महफ़ूज रखती है। रिश्ते निबाह- निर्वाह की नींव पर मान्यता हासिल करते हैं। भारत और विदेश की समस्याओं से गुज़रती एक नारी की कहानी है "ग्रीन कार्ड" जो चाह्कर भी अपनी नकारात्मक सोच से रिहाई नहीं पा रही। बेहद अपमान जनक स्थितियों के कारण उसके अन्दर का अँधेरा घना होता जा रहा है। उसका अन्तर्द्वद्व इस कहानी में बखूबी चित्रित हुआ है और पाठक उसे अपने रोज़मर्रा के जीवन में महसूस सकता है।

जीवन में कई ऐसे मोड़ आते हैं जो ज़िंदगी को नई माइने बख़्शते हैं. परस्पर दो प्राणियों की मुलाक़ात, उनकी गुफ़्तार और फिर सिलसिले धीरे धीरे यादों को गहरा कर देती हैं. इला जी ने अपनी क़लम के सहारे कई ऐसे पारदर्शी सम्बन्धों की कहानी अपनी स्मृति के गलियारे से मुक्त कर हमारे साथ बाँटी है। ये कहानियाँ कहीं कहीं संस्मरण, कहीं आधुनिकीकरण की दशा और दिशा से हमारा परिचय कराती हुई महसूस होती हैं। उन्हें इस संग्रह के लिये मेरी दिली शुभकामनायें हैं और उम्मीद ही नहीं यक़ीन है कि जीवन से जोड़ते हुये इस कहानी संग्रह को पाठकों का स्वागत और स्वीकृति मिलेगी।

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समीक्षकः देवी नागरानी,

डी, कार्नर व्यू सोसाइटी,

बांद्रा, मुंबई ४०००५०.

कहानी संग्रहः इस कहानी का अंत नहीं,

लेखिकाः इला प्रसाद,

पन्ने=९६,

मूल्य=रु॰ १२५,

प्रकाशकः जनवाणी प्रकाशन, विश्वास नगर, दिल्ली ११००३२


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