बुधवार, 19 अक्तूबर 2016

ग्रामीण जीवनशैली, राजनीति का ताना-बाना

ऐसे समय में जबकि महानगरों की बेलौस जिंदगी, उन्मुक्त प्रेम-संबंध, सेक्स, देह केन्द्रित साहित्यिक कृतियों की रचना अधिकाधिक हो रही हो तब ग्रामीण अंचल को कथावस्तु का केंद्र बनाना जीवटता का कार्य कहा जायेगा. ऐसी जीवटता का काम लखनलाल पाल ने अपने उपन्यास बाड़ा के माध्यम से किया है. इसके साथ-साथ उन्होंने भाषा सम्बन्धी जोखिम भी उठाया है. गाँव की कथा कहते हुए वे बुन्देली भाषा, बोली के शब्दों का भरपूर प्रयोग करने से नहीं चूके हैं. कहानी के पात्रों का वार्तालाप उन्हीं की बोली, उन्हीं के अंदाज में होता है. वर्तमान दौर में जबकि हिन्दीभाषी लेखक भी हिन्दी के साथ-साथ हिंगलिश जैसी मिश्रित भाषा-बोली को जबरिया, खुलेआम ठूँसने में लगे हैं तब लखनलाल विशुद्ध ग्रामीण अंचल की कथा को विशुद्ध बुन्देली अंदाज में प्रस्तुत करने का कार्य करते हैं.

उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचलों में आज भी जाति, धर्म, राजनीति, आपसी मतभेद, गुपचुप साजिश करना आदि उपस्थित हैं. बाड़ा का ताना-बाना भी गाँव के इसी चरित्र के इर्द-गिर्द घूमता हुआ आगे बढ़ता है. उपन्यासकार ने बड़ी ही निष्पक्षता के साथ पात्रों को गढ़ते हुए ग्रामीण अंचल की आंतरिक व्यवस्था को सामने रखा है. विजातीय विवाह किये जाने के परिणामस्वरूप ग्रामीण व्यवस्था में कायम आंतरिक पारिवारिक, जातिगत व्यवस्था को तोड़ना या फिर उसके साथ सामंजस्य बनाते हुए संबंधों का, रिश्ते-नातों का निर्वहन करने की दुष्कर स्थिति को उपन्यास के पात्र जीते हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी वैवाहिक समारोहों में, मांगलिक कार्यों में, संस्कारों आदि में जहाँ एक तरफ समन्वय, सहयोग की भावना अपने चरम पर दिखाई देती है वहीं दूसरी तरफ एकदूसरे को नीचा दिखाने की कुत्सित नीतियाँ भी बनती रहती हैं. रामकेश के चचेरे भाई द्वारा विजातीय विवाह करने के पश्चात् उठा विवाद, फिर जातिगत बहिष्कार के कारण जातिगत खेमेबंदी ने गाँव की मानसिकता को भली-भांति उकेरा है. इसी विवाद के बीच चाची का बाड़ा खरीदने को लेकर उठा मसला जातिगत वैमनष्यता को बढ़ाता है. अपने-अपने खेमों को बढ़ाने की नीति, अपने-अपने तरफ के लोगों को किसी न किसी रूप में अपने में ही शामिल बनाये रखने की जुगत के बीच दोनों पक्षों की हार-जीत होती रहती है.

रामकेश और भदोले दाऊ की जातिगत हनक स्थापित करने, अपना-अपना वर्चस्व बनाये रखने की जद्दोजहद करते हुए नए-नए हथकंडे अपनाते रहते हैं. हालाँकि बाड़ा खरीदने, उससे सम्बंधित लोगों के आपसी विवाद के बाद लम्बे समय तक बाड़ा गाँव की अन्य गतिविधियों के केंद्र से गायब ही रहता है तथापि अंत में वह पुनः कुल्हाड़ी लहराने के साथ सामने आ खड़ा होता है. ये लेखक का ग्रामीण अंचल से सम्बंधित होने का स्पष्ट परिचायक है कि आज भी गाँव के भीतर किसी विवाद का अंत नहीं होता है वरन देशकाल, परिस्थिति के अनुसार वह अपना रूप पुनः दिखा देता है.

उपन्यासकार लखनलाल कतिपय बिन्दुओं को लेकर जहाँ सशक्तता के साथ उभरकर सामने आते हैं वहीं किंचित कमजोर से भी दिखे हैं. एक महिला पात्र गुन्दी अत्यंत सशक्तता से अपनी उपस्थिति दर्शाती है. अपनी सौतेली बेटी को प्रताड़ित किये जाने की रोज-रोज की घटनाओं के बाद गुन्दी द्वारा उसी की ससुराल में जाकर उसकी सास को जबरदस्त तरीके से हड़काना, उसकी मजबूरी का फायदा उठाकर मिसुर द्वारा रुपये उधार देने के समय किये गए उसके शारीरिक शोषण का बौद्धिक रूप से बदला लेना, आवास योजना के अंतर्गत बनते मकानों की अनियमितता के विरोध में गुन्दी का खड़ा हो जाना, पति के अत्यंत बीमार होने के कारण गाँव भर के पुरुषों की कामलोलुप नज़रों का पूरे साहस के साथ सामना करना उसकी जिजीविषा को, उसके आत्मबल को दर्शाता है. लेखक संभवतः गाँव की कहानी कहने में, बाड़ा और जातिगत विवाद की कथा कहने में ज्यादा निमग्न रहे और इसी कारण से गुन्दी के चरित्र को और मजबूत बनाने से चूक गए. संभव है कि उपन्यास की मूलकथा को प्रभावित होने से बचाने के लिए ऐसा किया गया हो. बावजूद इसके लेखक द्वारा स्त्री सशक्तिकरण की एक नवीन परिभाषा का निर्माण किया जा सकता था.


ग्रामीण अंचल से परिचित पाठकों को इसे पढ़ने में अवश्य ही आनंद महसूस होगा क्योंकि बाड़ा की कथा कहीं न कहीं उन्हें अपने आसपास की कहानी प्रतीत होगी. इसी तरह ग्रामीण अंचल से अपरिचित पाठकों के लिए संभव है कि बाड़ा उपन्यास बोझिल अथवा नीरस लगे किन्तु यदि वे ग्रामीण अंचल को नजदीक से देखना-महसूस करना चाहते हैं तो उनके लिए इसे पढ़ना सुखद ही होगा. आधुनिकता के वशीभूत गाँवों के विलुप्त होते जाने के दौर में  ग्रामीण अंचल की जीवनशैली को बाड़ा के माध्यम से प्रस्तुत करना लेखक का सराहनीय एवं स्तुत्य प्रयास है. इस कृति का साहित्यजगत में भरपूर स्वागत होना ही चाहिए. 


समीक्षक : डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
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कृति : बाड़ा (उपन्यास)
लेखक : लखनलाल पाल
प्रकाशक : नीरज बुक सेंटर, दिल्ली-92
संस्करण : प्रथम, 2016
ISBN : 978-93-83625-23-9


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