वर्तमान में जबकि सूचना क्रांति के साधन तीव्रता से सबके हाथों में पहुँच
रहे हों; आधुनिकता के वशीभूत समाज की परम्पराएँ ध्वस्त होने की कगार पर हों; नियम-परिपाटी
को कहीं हाशिये पर लगाकर निश्चित मानदंडों को विखंडित किया जा रहा हो; बंधी-बंधाई
परिभाषाएं बदलने की कोशिशे जारी हों ऐसे समय में स्त्री की स्थिति पर लेखन का
कार्य दुरूह भले ही न कहा जाये किन्तु जीवटता वाला अवश्य ही कहा जायेगा. तलवार की
धार पर चलने से समान कार्य उस समय और भी दुष्कर हो जाता है जबकि कालखंड को वेदबुक
से फेसबुक तक निर्धारित किया गया हो. इसके लिए निश्चित ही पुस्तक के लेखक पुनीत
बिसारिया जी बधाई के पात्र हैं. अनेक नवीन विषयों को उदघाटित करने वाले सुप्रसिद्ध
साहित्यकार पुनीत बिसारिया ने ‘वेदबुक से फेसबुक तक स्त्री’ के द्वारा स्त्री की
उड़ान को कलमबद्ध करने का एक साहसिक प्रयास किया है.
स्त्री की दशा का आकलन करने के लिए लेखक ने वैदिक युग से उसकी यात्रा को
आरम्भ किया है. उनके द्वारा वैदिक युग की स्त्रियों के विद्याध्ययन की स्वतंत्रता,
सैन्य शिक्षा ग्रहण करने के उदाहरण दिए गए हैं. लोपामुद्रा, रोमसा, घोषा, सूर्या,
अपाला, विलोमी, सावित्री, यमी, विश्वंभरा, श्रद्धा, कामायनी, देवायनी आदि के द्वारा
दर्शाया गया है कि उस कालखंड में महिलाओं को सम्मानजनक स्थान प्राप्त था. लेखक ने
इस बात के भी स्पष्ट प्रमाण दिए हैं कि वैदिककालीन महिलाओं के साथ ही दुर्व्यवहार
आरम्भ हो गया था. इसके लिए वे लिंगपुराण का सन्दर्भ देते हैं. ये अपने आपमें
आश्चर्य का विषय है कि जिस कालखंड में अनेक विदुषी महिलाओं ने शास्त्रार्थ द्वारा
पुरुषों को पराजित किया हो उस कालखंड में स्त्रियों की दशा में गिरावट भी देखने को
मिलती है.
मध्यकाल तक आते-आते स्त्रियों की स्थिति और भी बिगड़ गई. इसके उदाहरण में
लेखक ने मनुस्मृति (5/154),
याज्ञवल्क्य (7/77), रामायण (अयोध्याकाण्ड 24/26 27), महाभारत (अनु०प० 146/55), अश्वमेध पर्व (90/910), शांति पर्व (148/6, 7), मत्स्य पुराण
(210/18), आदि को उदाहरण के रूप में सामने रखा है. बौद्धकालीन,
मौर्यकालीन महिलाओं की दशा भी उन्नत नहीं थी और रही सही कसर मुस्लिम आक्रान्ताओं ने
पूरी कर दी. पर्दा प्रथा, बाल विवाह, सती प्रथा, जौहर प्रथा आदि कुरीतियों का
उत्सर्ग इसी समय में देखने को मिलता है. बालिकाओं की शिक्षा पर प्रतिबन्ध लगा दिया
गया. लेखक ने इस विषम स्थिति को दर्शाने के साथ-साथ इस कालखंड की कई शिक्षित महिलाओं
के उदाहरण भी सामने रखे हैं जिन्होंने अपने प्रयासों से राजनीतिक घटनाक्रमों में
अग्रणी भूमिका निभाई थी. रानी विद्या, रानी दुर्गावती, रानी कर्णवती, ताराबाई, देवलरानी,
रूपमती, पद्मिनी, रज़िया सुल्तान आदि के द्वारा लेखक ने तथ्यात्मकता दर्शाई है. लेखक
ने अपनी पुस्तक में ये संकेत देकर कि मुस्लिम
स्त्रियाँ तभी बाहर निकलती थीं जब वे अत्यधिक निर्धन हों अथवा लज्जाहीन हों लेकिन
वे भी अपना सर ढंके रहती हैं, दर्शाने का प्रयास किया है कि हिन्दू महिलाओं की तुलना
में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति अधिक ख़राब थी.
स्त्रियों की दशा के सम्बन्ध में ‘स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है’
जैसे वाक्य को स्त्री-विमर्श का ब्रह्म वाक्य सा घोषित कर दिया गया है और कदाचित
लेखक भी इसी के इर्दगिर्द भटकता सा दिखा. स्त्री-विमर्श को एक आन्दोलन के रूप में
चित्रित करने के अपने सफल प्रयास में लेखक ने महज पश्चिमी सन्दर्भों में
स्त्री-विमर्श को तलाशने का प्रयास किया. भारतीय सन्दर्भों में आधुनिक स्त्रियों
के रूप में प्रस्तुत लेखक के सन्दर्भ कहीं से भी भारतीय स्त्री-सशक्तिकरण की धार
को मोथरा नहीं होने देते हैं. ये पुनीत बिसारिया की विशेष दृष्टि रही है कि उन्हों
ने अपने आपको उन आरोपों से मुक्त रखने में सफलता पाई है, जैसा कि तमाम महिला
मुक्ति संगठनों की महिलाएं लगाती हैं, कि पुरुषों द्वारा स्त्री-विमर्श,
स्त्री-सशक्तिकरण का प्रस्तुतीकरण इस रूप में किया जाता है कि जिससे उसकी धार को
मोथरा किया जा सके. सावित्री बाई फुले से आरम्भ हुई उनकी यात्रा में रमाबाई रानाडे
भी शामिल हैं, पंडिता दयाबाई की भूमिका को भी स्पष्ट रूप से चित्रित किया गया है, मुस्लिम
शिक्षा व्यवस्था को सुधारने के लिए अग्रणी भूमिका निभाने वाली बेगम वाहिद जहाँ खां
के योगदान को भी लेखक ने यथावत सामने रखा है.
सम्पादकीय हस्तक्षेप से दूर सोशल मीडिया के इस शक्तिशाली मंच ‘फेसबुक’ ने
स्त्री-पुरुष को वैचारिक उड़ान का अनन्त आकाश उपलब्ध करा दिया है. इस आकाश में स्त्रियों
के कई-कई रूप अपनी-अपनी उड़ान भरते, कुलाचें भरते दिखाई देते हैं. ‘वेदबुक से
फेसबुक तक स्त्री’ का सबसे प्रभावशाली और सर्वाधिक दुरूह पड़ाव फेसबुक की स्त्री को
परिभाषित करने में समझ आता है. फेसबुक पर सक्रिय या कहें कि अपनी उपस्थिति को
दर्शाने वाली महिलाओं की श्रेणियों का विभाजन करते में लेखक ने अतिरिक्त सतर्कता
बरतने का प्रयास किया है, जो उनकी शोधपरक दृष्टि को ही इंगित करता है. महिलाओं के
प्रति अतिशय उन्मुक्तता दर्शाने वाली मानसिकता यहाँ है तो महिलाओं को महिला समझकर
अपने अस्तित्व पर गर्व कराने का बोध जगाने वाली महिलाएं भी हैं. ये कह देना कि हम
जो अपने घरों से एक बार बाहर निकले हैं, तो अब वहाँ लौटकर नहीं जायेंगे, महिलाओं
की स्वतंत्रता का बेजा इस्तेमाल करने की तरफ प्रेरित करने जैसा ही है. इस बेजा
स्वतंत्रता को भी पकड़ने वाली और उनसे माता-पिता को सचेत करने वाली लेखिकाएं फेसबुक
पर बेबाक राय देती हैं.
लेखक ने फेसबुक पर स्त्री को उसी के बरअक्श देखने के प्रयास में निरपेक्ष
दृष्टि अपनाने का भरपूर प्रयास किया है किन्तु मानवीय स्वभाव बिना भटके मानता नहीं
है और कभी-कभी परिस्थियाँ ऐसा करवा देती हैं. संभवतः लेखक के स्थिर मन को भटकाने
में नई दिल्ली में १६ दिसंबर २०१२ को हुए घनघोर अमानवीय कृत्य ने अपना असर दिखाया और
दिल दहलाने वाले इस कृत्य ने लेखक को अपने आसपास ही सिमटा लिया. इसी के चलते लेखक फेसबुक
की स्त्री को दिल्ली काण्ड के आसपास समेट बैठे हैं और बहुत सी जानी-अनजानी बातों
को वे जाने-अनजाने में छिपा सा गए हैं. संभव है कि ऐसा करने के पीछे उनकी मंशा
सामाजिक सद्भाव को स्थापित करना ही रहा हो क्योंकि फेसबुक की तमाम स्त्रियों की
चर्चा करते वे दिखते हैं किन्तु गैर-हिन्दू महिलाओं की दशा-दिशा पर चर्चा करने में
किंचित संकोच दर्शाते हैं. कुछ ऐसा ही संकोच वे धार्मिक ग्रंथों में महिलाओं की
स्थिति के सन्दर्भ को चित्रित करने में दिखाते हैं. संस्कृत, बौद्ध, जैन ग्रंथों
को विस्तृत रूप से सामने रखते हैं किन्तु मुस्लिम ग्रंथों के प्रति परहेज करते
दिखते हैं. फेसबुक का एक कथन कि ‘स्त्री का रहस्मय रूप ही पुरुष को सबसे अधिक
मान्य है. जिसका हम वर्णन नहीं कर पाते उसे रहस्मय बना देते हैं. रहस्मय बनाने का
अर्थ है स्त्री को न समझना’ भी लेखक
की रहस्मयता को बनाये रखता है. लेखक द्वारा वर्गीकृत स्त्री अपने आकाश को असीमित
रूप से विस्तृत करने में जिस तरह से फेसबुक से जुड़ी है, उसे देखते हुए इस बिंदु पर
अध्ययन के और भी कई आयाम, नए-नए आधार निर्मित किये जा सकते हैं. अपने आपमें
विशुद्ध अछूते विषय को उठाकर पुनीत बिसारिया ने अनूठा कार्य किया है जो न केवल
स्त्री-विमर्श की नवीन संकल्पना को तैयार करेगा वरन शोधार्थियों के लिए भी
अनुसन्धान के नए द्वार खोलेगा. फेसबुक पर इस तरह के सन्देश तो बहुतायत में मिल
जाते हैं कि ‘यदि आप पुरुष हैं तो स्त्री का सम्मान करें. अगर आप स्त्री हैं तो
अपने स्त्रीत्व पर गर्व करें’ किन्तु किसी भी ऐसे सन्देश का जिक्र नहीं मिलता
कि यदि आप महिला हैं तो पुरुष का सम्मान करें और दूसरी स्त्री को भी सम्मान दें, संभवतः
लेखक की अगली पुस्तक-यात्रा में ऐसा कुछ पढ़ने को मिले? ‘वेदबुक से फेसबुक तक
स्त्री’ की यात्रा कहीं-कहीं भले अधूरी सी दिखाई दे किन्तु ये लेखक की असफलता नहीं
वरन विचार-विमर्श के वे बिंदु हैं जिनके द्वारा तर्क-वितर्क करके और आगे तक जाया
जा सकता है.
लेखक को सफलता की शुभकामनाओं और स्त्री-शक्ति,मातृ-शक्ति को उसके गौरवशाली भविष्य
की राह निर्मित करने की मनोकामनाओं के साथ अपेक्षा है कि स्त्री यात्रा का ये चरण
समाज को जगाने की दिशा में सार्थक कदम सिद्ध हो.
.
डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
सम्पादक - स्पंदन, मेनीफेस्टो
आदरणीय डाक्टर साब आपकी इस समालोचना का कोई जवाब नहीं। पुनीत जी के कार्य का सम्पूर्ण और तरतीब से विश्लेषण बहुत दिनों बाद आज ब्लॉग पर हमें सुखद अनूभूति दे गया। इसके लिए आपका बहुत बहुत आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी समीक्षा
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी समीक्षा
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी समीक्षा
जवाब देंहटाएंआदरणीय डॉ कुमारेन्द्र जी ने अपनी सुचिंतित गाम्भीर्य विवेचना से इस पुस्तक का नीर क्षीर विवेचन किया है। मैं उनका अंतरीण आभार व्यक्त करता हूँ और साथी मित्रों से भी अपेक्षा करता हूँ की वे अपनी विद्वतापूर्ण टिप्पणियों से मेरा मार्गदर्शन करें।
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जवाब देंहटाएंबहुत उपयुक्त समीक्षा ।
पुनीत जी क्या यह पुस्तक ऑनलाइन पढ़ने को मिल सकती है । यदि संभव हो तो पहुँचना लिंक ।